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( १७ ) अब रहा “महाजन संघ" के पृथक् २ गोत्र और हजारों " भिन्न २ जातियों का होना, सो इसके लिए यह समझना कठिन नहीं है कि गोत्र तो इसके पूर्व भी थे और गृहस्थों के लिए इसकी जरूरत भी थी, क्योंकि आर्य-प्रजा में यह पद्धति थी कि जब किसी लड़की लड़के की शादी करना हो तो कई गोत्र छोड़ कर शादी की जाती थी। इसलिए गोत्रों का होना कोई बुरा नहीं अपितु आर्य मर्यादा के लिए अच्छाही है और यह व्यवहार आज भी अक्षुण्ण रूप से चला आता है। अब रहा एक गोत्र की अनेक जातियों का होना सो यह तो उल्टा महाजन संघ के उत्कृष्ट अभ्युदय का ही परिचायक है। जैसे एक पिता के दश पुत्र हैं और वे सब के सब बड़े ही प्रभाविक हुए तो एक ने तीर्थयात्रार्थ संघ निकाला और उसकी संतान तब से संघी कहलाई। दूसरे ने मंदिर को कैसर की बालद चढ़ा दी, उसकी संतान केसरिया कहलाई। किसी ने कोठार का काम किया तो उसकी संतान कोठारी के नाम से मशहूर हुई। इत्यादि ऐसे अनेक कारण हुए जिनसे अनेकों जातिएँ हुई । जैसे:
१-भंडारी, कोठारी, कामदार, खजानची, पोतदार, चौधरी, दफ्तरी, मेहता, कानूँगा, पटवा, बोहरा, संघी आदि नाम पेशों से हुए हैं।
२-धूपिया, गुगलिया, घीया, तेलिया, केशरिया, कपूरिया, कुंकुंम, नालेरिया, बजाज, सोनी, गांधी, जड़िया, जौहरी आदि नाम व्यापार करने से हुये हैं।
३- हथुड़िया, जालौरी, नागौरी, रामपुरिया, साँचोरी, सीरोहिया, फलोदिया, पोकरणा, मंडोवरा, मेड़तिया, चंडालिया, .