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पूज्यों के पास था वह उनके ही पास रह गया । और उन क्रिया उद्धारकों के हाथ केवल समाज को आपस में लड़ा झगड़ा कर अपनी उदर पूरणा करने मात्र की योग्यता रह गई । यदि समाज शुरू से ही श्री पूज्यों आदि को शिथल न होने देती, उन पर अंकुश रखती या उनको ठीक मार्ग पर लाकर श्रीपूज्यों का आदर करती तो क्या शत्रुंजय जैसे एक प्रभावशाली तीर्थ की यात्रा करने वालों को ६००००) वार्षिक दंड का देना पड़ता ? ( कभी नहीं ) तथा क्या विधर्मी लोग जैन तीर्थङ्करों के लिए वित्र भावा में असभ्यता पूर्वक आलोचना कर सकते ? (नहीं) पर विचार किया उद्धारक क्या करें क्योंकि अब तो " नाई की जान में सब के सब ठाकुर" इस कहावत को चरितार्थ करते हुए सभी महेन्द्र बन बैठे हैं। यदि आपस में लड़ने झगड़ने का काम पड़े तो रे रे तँ तँ करने में सभी बड़े शूरवीर हैं ।
जिस जैन धर्म का खास उद्देश्य आत्म कल्याण का था और इसके लिए ज्ञान, ध्यान, क्षमा, दम, शील, संतोष और निःस्पृहता थी उनका तो आज दर्शन होना भी दुष्कर हो गया है और उनके बदले फूट, कुसंम्य, क्लेश, कदाग्रह, माया, गूढ़ माया, छल, प्रपंच, मिध्यामान, बड़ाई और तृष्णा आदि के ही यत्र तत्र दर्शन होते हैं ।
श्री पूज्य लोग सरल स्वभाव होने के कारण क्रिया में शिथिल होंगे और थोड़ा बहुत परिग्रह भी रखते होंगे, परन्तु सङ्घ यदि उनके अनुकूल रह कर सुधारने की कोशिश करता तो ये
* यह वर्तमान श्री पूज्यों के लिए नहीं पर पहले समय के श्रीपूज्य के लिए है ।