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________________ ( २५ ) जब रूपान्तरित हो चैत्यवासी ही नहीं अपितु उनसे भी आगे दो कदम बढ़ गए। परन्तु इतनी बात जरूर खुशी की थी कि वे मंदि‍ मूत्तियों और पंचांगी सहित श्रागम मानने में सहमत रहे कि अलग-अलग हो जाने पर भी पूजा में, मंदिर में, वरघोड़ा में, जलयात्रा में, प्रतिष्ठा में और तीर्थ यात्रार्थ संघ में वे आपस में मिल भेट सकते थे । पर संघ में फूट डाल अलग अखाड़ा जमाने की प्रवृत्ति बहुत बुरी थी, इससे आगे चल कर और भी बढ़ के नुक़सान हुआ क्योंकि यह मार्ग ही स्वच्छन्दता का था इसका अवलंबन आगे चल कर योग्य, अयोग्य, पठित, अपठित, लायक, नालायक, सभी कर सकते थे और ऐसा हुआ भी है जैसे कि - ( २ ) लौंकाशाह आदि कई गृहस्थ लोगों ने भी अपने अपमान के कारण स्वयं कुछ योग्य न होते हुए भी अनाधिकार चेष्टा कर क्रिया उद्धारक के नाम पर जैन शासन में फूट डाल अपनी डेढ़ चावल की खिचड़ी अलग ही पकाई पर इनके पास न तो ज्ञान था और न क्रिया थी तथा न थी शासन की परम्परा, इतना होने पर भी उन्होंने जैनागम जैन मन्दिर मूत्तियों से खिलाफ़ होकर मिथ्या प्रचार करना शुरू किया और अज्ञ लोगोंने ऐसे शासन भंजकों का भी साथ दे दिया, परन्तु आखिर रेती में नाव कहाँ तक चले, अतः इस नये पन्थ को हुए पूरे १०० वर्ष भी नहीं हुए थे कि इसके अन्दर भी वही शिथिलता था घुसी कि जिस से एक लवजी नामक + व्यक्ति ने डोरा ड़ाल मुँह पर मुँहपत्ती बाँध * वि. सं. १९०८ में लौंकाशाह ने अपना लौंकामत चलाया । वि. सं. १५२४ में कडुआशाह ने कडुआमत चलाया । + वि. सं १७०८ में लुंपकयति लवजी ने मुँह पर कपडाकी पट्टी -बांध कर इंडिया धर्म चलाया -
SR No.032653
Book TitlePrachin Jain Itihas Sangraha Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1937
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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