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________________ (१०) रहता था और वह उस मन्दिर की सब व्यवस्था भी करता था । जब वहां पर आचार्य सर्वदेवसूरि आये तो देवचन्द्रोपाध्याय को हितोपदेश दे कर उसका चैत्यवास छुड़वा कर उग्र विहारी बनाया इत्यादि । इसका समय विक्रम की दूसरी शताब्दी का है जो वनस्वामी के आसपास का समय कहा जाता है । इस प्रमाण से यह पाया जाता है कि विक्रम की दूसरी शताब्दी पूर्व चैत्यवास शुरू हो गया था। परन्तु उस समय भी सुविहित विद्यमान थे और हितोपदेश दे कर चैत्यवास छुड़वाते थे । इससे पाया जाता है कि उस समय कई एक चैत्यवास कर बैठे थे, और कई एक चैत्यवास अर्थात् चैत्य की व्यवस्था करने वाले साधुओं को बुरा भी समझते थे, जैसे-सर्वदेवसूरि और देवचन्द्रोपाध्याय । कैलास शैलवभाति, सर्वाश्रय तयाऽनया ॥ ६ ॥ उपाध्यायोऽस्ति तत्र श्रीदेवचन्द्र इति श्रुतः । विद्वद्वन्द शिरोरत्न, तमस्ततिहरो जनैः ॥ ७ ॥ आरण्यक तपस्यायां, नमस्यायां जगत्यपि । सक्तः शक्तान्त रंगाऽरि-विजये भव तीर भूः ॥ ८ ॥ सर्व देवप्रभु, सर्व देव सध्यान सिद्धिभृत् । सिद्ध क्षेत्रे यियासु : श्री वाराणस्याः समागमत् ॥९॥ बहु त परिवारो, विश्रान्त स्तन वासरान् । कांश्चित प्रबोध्य तान्, चैत्यव्यवहार ममोचयत् ॥१०॥ स पारमार्थिक तीव्र, धत्ते द्वादशधा तपः । उपाध्यय स्ततः सूरि, पदे पूज्येः प्रतिष्ठितः ॥१॥ श्री देवसूरि रित्याख्या, तस्य ख्याति ययौ किल । श्रयन्तेऽद्यारि वृद्धभ्यो, वृद्धा स्ते देव सूरयः ॥१२॥ "प्रभाविक चरित्र मानदेव प्रबन्ध पृष्ठ १९१"
SR No.032653
Book TitlePrachin Jain Itihas Sangraha Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1937
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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