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उपकेश में उपद्रव हुआ जब, श्री संघ इन्हे बुलाया था ।
श्रेष्ठ तप करने से देवी, श्राकर शीश झुकाया था ॥ १६ ॥ पूज्यवर ! इन मूर्ख लोगों ने, शुभ प्रतिष्ठा का भंग किया ।
टांकी लगाकर ग्रन्थी छेदाई, जिसका ही यह फल लिया भवितव्या टारी नहीं टरती, रक्त धारा अब बन्द करो ।
विधि बताई वृहद शान्ति की, जिसको सब मिल जल्द करो ॥ तातेड़, बाफना, बलाद, करणावट, श्रीमाल, कुल मोरख थे । विरहट्ट, श्रेष्ठि, गौत्र, नव ये, दक्षिण दिशा सुरख थे | संवेति, आदित्यनाग, भूरि भाद्र, चिंचट कुमट कनौजिये थे । sिs लघुश्रेष्टि ये नव, वांमें पंचामृत लिये थे ॥ मंत्राक्षर और क्रिया विधि से, शांति स्नात्र भगाई थी ।
कृपा थी गुरुवर की जिसमें शांति सर्वत्र वरताई थी । ऐसे सद्गुरु का कोई सज्जन, शुद्ध मन ध्यान लगाता है ॥ इस लोक और परलोक में, मन वंछित फल पाता है ।
१४- प्राचार्य देवगुप्तमूरि
चौदहवें पटधर देवगुप्त, सूरीश्वर यशः धारी थे । जिनके गुणों का पार न पाया, आप बडे उपकारी थे । श्रजैनों को जैन बनाकर, महाजन संघ बढ़ाया था ।
मन्दिरों की प्रतिष्ठा करके. जीवन शिखर चढ़ाया था ।
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