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१९२८ से १९३५ तक, ८ बरस, मुझे श्री सम्मेदाचल, पावापुरी, रावगृही तीर्थक्षेत्र-सम्बन्धित मुकदमों, बीकानेर हाईकोर्ट की बजी, लाहौर हाईकोर्ट में डाक्टर सर मोतीसागर के दफ्तर के काम, हैदराबाद में मुनि जय सागर के बिहार प्रतिबन्ध के मुकदमें, आदि से अवकाश न पिलने के कारण अधिवेशन न हो सका ।
१९४१. १९४२, १९४३ में भी अधिवेशन न हो सका । १७ बरस अधिवेशन न होना अवश्य खेदजनक है। इसका मुख्य कारण यह था कि तीर्थक्षेत्र-सम्बन्धी मुकदमों के कारण श्वेताम्बरीय भाइयों से जो सहयोग मिलता था, वह कम हो गया था।
विशेष हर्ष का अवसर है कि महामण्डल का २७वाँ अधिवेशन हैदराबाद ( दक्षिण ) में श्री कुन्दनमल शोत्राचन्द फीरोदिया के सभापतित्व में मार्च २, ३, ४, अपरैल १९४७ को हो रहा है ।
महामण्डल के अधिवेशन सूरत, और बम्बई में तो हो चुके हैं। यह पहला अवसर है कि मण्डल अपने जन्म स्थान से हजारों कोस दूरस्थ दक्षिण देश की एक महान देशीय रियासत में आमन्त्रित किया गया है। यह इस बात का शुभ प्रतीक है कि महामण्डल की प्रियता जैन समाज में फैल रही है। । वास्तविक बात यह है कि जैन समाज में जितनी भी प्रगति और उन्नति हुई है, उसका श्रेय मण्डल के कार्यकर्ताओं को है, मण्डल के कार्यकर्ताओं ने दिगम्बर जैन महासभा को चलाया, जब महासभा पर एक स्वार्थी संकुचित विचार वाले दल ने अधिकार जमा लिया, तो मण्डल के कार्यकताओं ने ही दि०जैन परिषद की स्थापना की। पारा का जैन सिद्धान्त भवन, हरप्रसाद, जैन डिगरी कालिज, वीर वाला विश्राम, और बम्बई में श्राविकाश्रम, इलाहाबाद, लाहौर, आगरा में बैन छात्रालय श्रादि के स्थापन करने वाले मण्डल के कार्यकर्ता ही थे। महामंडल के उद्देश्य संक्षिप्त तथा व्यापक शन्दों में । [१] जैन समाज में एकता और उन्नति,