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बहुत ही मूल्यवान है । ईसा पूर्वकी छटी सदी में अक्षपाद गौतमने बुद्धि • वाद द्वारा भौतिकोंके जड़वादका निराकरण करने के लिये जिस न्याय. शास्त्र को जन्म दिया था, उसे गहरे शोध और अनुसन्धान द्वारा पूरी ऊचाई तक उठाना और उसका अध्यात्मद्या के साथ सम्मेल करना जैन नैयायिकों का ही काम था । ईसके लिये महा० उपा० सतीशचन्द्र विद्याभूरण जैसे प्रकांड विद्वानने जैनन्यायकी मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है, उनका कहना हैं कि ईसाकी पहली सदी में होने वाले जैनाचार्य उमास्वाति जैसे अध्यात्म विद्याविशरद तथा छटी सदी के सिद्धसेन दिवाकर और आठवीं सदी के अव लकदेव जैसे नैयायिक इस भूमि पर वहुत कम हुए हैं ।
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भारतीय भाषाओं को जैनधर्म की देन
भगवान महाबीर को दृष्टि बहुत ही उदार थी और उनका उद्दे श्म प्राणी मात्रका कल्याण था, वह अपने सन्देश को सभी तक पहुंचाना चाहते थे, इसीलिये उन्होंने ब्राह्मणों की तरह कभी किसी भाषामें ईश्वरीय भाषा होनेका प्राग्रह नहीं किया । उन्होंने भाषाको अपेक्षा सदा भावों को अधिक महत्तादी । उनके लिये भाषा का अपना कोई मूल्य न था, उसका मूल्य इसी में था कि वह भावों को प्रकट करने का माध्यम है । जो भाषा अधिकतर लोगों के पास भावों को पहुँचा सके वही श्रेष्ठ हैं भाषा की श्रेष्ठता उपयोगिता पर निर्भर है, जातीयता पर नहीं । इसलिये उन्होंने अपने उपदेशों के लिये संस्कृत को माध्यम न बनाकर अर्द्धमागधी नाम की प्राकृत भाषा को माध्यम बनाया, जो उस समय हिन्दुस्तानी भाषा की तरह भारत के सभी पूर्वीय और मध्य देशों में आम लोगों द्वारा बोली और समझी जाती थी । इस भाषा में न केवल मगध देश की बोली ही शामिल थी, बल्कि विदेह, काषी, कौशल, मालवा, कोशाम्बी जैसे आस
1 Dr. Winternitz, History of Indian Lit. vol 11- PP. 564. 505.
देवो महा० सतीशचंद्र द्वारा १९१३ में स्थाद्वादद्यिालय काशी में दी हुई स्पीच ।