________________
मण्डली सहित तथा शालिभद्र धन्यकुमार' प्रीतंकर मादि मगध धनकुबेर विद्य चर, जन जैसे डाकू और चण्ड कौशिक जैसेमहापातक भी उनके द्वारा दीक्षित्र हो जैनमुनि हो गये। उस समय उन की मान्यता इतनो इतनो बढ़ी चढ़ी थी कि वह सभी के लिये अनुपम आर्दश धर्म अवतार हो गये थे। सभी के लिये परमशान्ति, परमज्ञान परमानन्द और विश्वकल्याण के प्रतीक बन गये थे। उस जमाने के लोग उनके प्रर्दिश जीवन को ही दूसरे श्रमण अर्हन्तों की पूर्णता और सर्वज्ञता जाचने के लिए मापदण्ड की तरह काम में लाते थे। उस समय के लोगों की भगवान के प्रति कितनी श्रद्धा और भक्ति थी, इस बात का अन्दाजा लगाने के लिये इतना कहना ही काफी होगा कि भारत के ऐतिहासिक युग में सब से पहला मम्वत् जो कायम हुआ वह । इन्हीं के निर्वाण की शुभ स्मृति में कायम हुआ था। यह संवत् आज भी वीर-संवत् के नाम से जैन लोगों में प्रचलित है। कुछ विद्वानों का मत हैं कि द्वापर युग में महाराज युधिष्ठिर के राज्यारोहणकी स्मृतिमें भी एक संवन् भारत में जारी हुआ था. परन्तु इसका ऐतिहासिक युग से कोई सम्बन्ध नहीं है। इन्हीं के निवारण के उपलक्षमें दीपावली पर्व की स्थपना हुई । चूकि इनका निर्वाण कार्तिक कृष्णा १४ की रात्रि के अन्तिम पहर में हुअा था अर्थात् चौदश व अमावस्या तिथि के संगम पर हुमा था इसलिए छोटी बड़ी दिवाली के नाम से दोनों दिन पर्व के दिन बन गये घर-बार की सफाई करना । उन्हें सजाना, दीपमालिका जगाना, मिठाई १ (अ) Dr. B. C. Law-Historical gleanings P.78 (आ) Bulher-Indian Sect of the Jainas P. 132 इमज्झिम निफाय १४ वा सुत, अङ्गत्तर निकाय १-२२० (अ) महा० हीरचन्द मोझा भारतीय प्राचीन लिपि.माला ।
पृ० २ ,३ (मा) लोकमान्य तिलक सन १९०४ में जैनकान्फरेंस मेंदिया हुआ 'भाषण ।
।