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________________ ( २९ ) यह लेख खास जिनेश्वरसूरि के अनुयायियों का है। इसमें जिनेश्वरसूरि पाटण गये थे पर न तो वे राजसभा में गये थे न चैत्यवासियों के साथ उनका शास्त्रार्थ हुआ। और न राजा दुर्लभ ने उनको खरतर विरुद ही दिया था, केवल पुरोहित राजसभा में गया था । समझ में नहीं आता है कि खरतर झूठ मूट ही जिने - श्वरसूरि को खरतर कैसे बना रहे हैं ? इसी प्रकार आचार्य प्रभा चंद्रसूरि रचित प्रभाविक चरित्र का प्रमाण हम पूर्व उधृत कर आये हैं। ये दोनों प्रमाण प्राचीन याना चौदहवीं शताब्दी के हैं इसके पूर्व का कोई भी प्रमाण नहीं मिलता है कि जिनेश्वरसूरि को खरतर विरुद तो क्या पर जिससे राजसभा में जाना या शास्त्रार्थ होना सिद्ध होता हो । जिनेश्वर सूरि के पाटण जाने का समय आधुनिक खरतरों ने वि० सं० १०८० लिखा है वह भी गलत है जिसको मैं पहिले भाग में लिख आया हूँ कि वि० सं० १०८० में पाटण का राजा दुर्लभ नहीं पर भाम था । राजा दुर्लभ का राज तो वि० सं० १०७८ तक ही रहा था । अत. खरतरों का यह लिखना गलत है. है कि वि० सं० १०८० में जिनेश्वरसूरि को खरतर विरुद मिला था । एक सवाल यह उपस्थित होता है कि चैत्यवासी लोग सुविहितों को नगर में क्यों नहीं ठहरने देते थे ? शायद चैत्यवासियों को यह भय होगा कि यह चैत्यवासियों से निकल कर नामधारी सुविहित जैनसंघ के संगठन बल के टुकड़े टुकड़े करके संघ में फूट कुसम्प के बीज न बो डालें और आखिर उन्हों की धारणा सोलह आने सत्य ही निकली। कारण, पाटण में जिनेश्वरसूरि
SR No.032637
Book TitleKhartar Matotpatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala
Publication Year1939
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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