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२५९२ शिलालेख हैं, जिसमें खरतर गच्छ आचार्यों के वि० सं० १३७९ से १९८० तक के कुल ६६५ शिलालेख हैं ।
२ - श्रीमान् जिनविजयजी सम्पादित "प्राचीन लेख संग्रह" भाग दूसरे में कुल ५५७ शिलालेखोंका सग्रह है जिनमें वि० सं०१४१२ से १९०३ तक के २५ शिलालेख खरतरगच्छ आचार्यों के हैं ।
३- श्रीमान् आचार्य विजयेन्द्रसूरि सम्पादित 'प्राचीन लेख संग्रह ' भाग पहिलेमें कुल ५०० शिलालेख हैं जिनमें वि० सं० १४४४ से १५४३ तक के शिलालेख हैं उनमें २९ लेख खरतराचार्य के हैं ।
४ - श्रीमान आचार्य बुद्धिसागरसूरि संग्रहीत " धातु प्रतिमालेख संग्रह" भाग पहिले में १५२३, भाग दूसरे में २१५० कुल २६७३ शिलालेख हैं । जिनमें वि० सं० १२५२ से १७९५ तक के ५० शिलालेख खरतराचायों के हैं।
एवं कुल ६३२२ शिलालेखों में ७७९ शिलालेख खरतराचाय के हैं। अब देखना यह है कि वि० सं० १२५२ से खरतराचार्य के शिलालेख शुरू होते हैं। यदि जिनेश्वरसूरि को वि० सं० १०८० में शास्त्रार्थ के विजयोपलक्ष्य में खरतर - विरुद मिला होता तो इन शिलालेखों में उन श्राचार्यों के नाम के साथ खरतर - शब्द का प्रचुरता से प्रयोग होना चाहिये था, हम यहाँ कतिपय शिलालेख उद्दत करके पाठकों का ध्यान निर्णय की ओर खींचते हैं।
संवत् १२५२ ज्येष्ठ वदि १० श्रीमहावरदेव प्रतिमा श्वराज श्रेयोऽथ पुत्र भोजराज देवेन कारिपिता प्रतिष्ठा जिनचंद्र सूरिभिः ॥
आ० बुद्धि धातु प्र० ले० सं० लेखांक ९३०