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________________ (१२) नया मन्दिर बनवा कर उसके द्वार पर पत्थर में संघपट्टक के ४० श्लोक खुदवाये थे, क्या यह सावध कार्य नहीं था ? अब आगे चल कर ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र की टीका देखिये:"तस्याचार्य' जिनेश्वरस्य मदवद्वादि-प्रतिस्पर्धिनः ॥ तद्वन्धो रपि “बुद्धिसागर" इति ख्यातस्य सूरे वि ॥ छन्दो बन्ध निबन्ध बन्धरवचः शब्दादि सल्लक्ष्मणः॥ श्री संविग्न विहारिणः श्रुतनिधेश्चारित्र चूडामणे ॥८॥ शिष्येणाऽभयदेवाख्य, सरिणा विवृतिः कृता । ज्ञाताधर्मकथाङ्गस्य, श्रुतभक्त्या समासतः ॥६॥ आगे फिर श्रीश्रीपपातिक वृत्ति का अवलोकन करिये । चन्द्रकुल विपुल भूतल, युग प्रवर वर्धमान कल्प तरोः । कसमापमस्य सूरे, गुण सौरभ भारत भवनस्य ॥१॥ निर सम्बन्ध विहारस्य, सर्वदा श्री जिनेश्वरावस्य । शिष्येणाऽभयदेवाख्य सूरिणेयं कृता वृत्तिः ॥२॥ * इन टीकात्रों में अभयदेवसूरि ने वर्धमानसरि एवं जिनेश्वरसरि को चन्द्रकुल के प्रदीप बताया है। यदि जिनेश्वरसूरि को शास्त्रार्थ की विजय में "खरतरविरुद” भिला होता तो इस महत्व र्ण विरुद को छिपा कर नहीं रखते पर उसका उल्लेख भी कहीं न कहीं अवश्य करते; परन्तु उस समय "खरतर" भविष्य के गर्भ में ही अन्तर्निहित था। आगे अब जिनवल्लभसूरि के ग्रन्थों की ओर जरा दृष्टि-पात कर देखिये कि "खरतर" शब्द कहीं उपलब्ध होता है या नहीं ?
SR No.032637
Book TitleKhartar Matotpatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala
Publication Year1939
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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