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________________ ( ३२ । लेख खरतरों ने खरतर शब्द को प्रचीन बनाने के लिये जाली छपाया है। ___ इसी प्रकार जैतारण की मूर्तियों के लेख भी कल्पित हैं । चोर चोरी करता है पर उसमें कहीं न कहीं चोरी पकड़ी जाने के लिये त्रुटि रह ही जाती है। उपरोक्त शिलालेखों में चतुर्थ शिलालेख ११६७ का है जब जिनदत्तसूरि को सूरि पद वि० सं० ११६९ में हुआ था। उसके पूर्व जिनदत्त का नाम सोमचन्द्र था । जब जिनदत नामका जन्मही ११६९ में हुआतो ११६७ के शिलालेख में जिनदत्तका नाम आ ही कैसे सकता था । क्योंकि जन्म के पूर्व नाम हो ही नहीं सकता है । अतः पूर्वोक्त सब लेख जाली एवं कल्पित हैं। इन लेखों की लिपि की ओर दृष्टिपात करने से साफ साफ मालूम होता है कि यह लिपि बारहवीं शताब्दी की नहीं पर सत्रहवीं शताब्दी की है कि जिस समय महोपाध्यायजी धर्मसागर जी और जिनचन्द्रसूरि की आपस में खरतर शब्द की उत्पत्ति के विषय में खूब द्वन्द्वता चल रही थी। उस समय जिनचन्द्रसरि ने भविष्य में खरतर शब्द को प्राचीन सिद्ध करने के लिये इस प्रकार नीच कर्म किया है । पर उस समय जिनचन्द्र को यह विश्वास नहीं था कि आगे चल कर एक जमाना ऐसा आवेगा कि लिपि शास्त्र के जानकार सौ सौ वर्ष की लिपियों को पहिचान कर जाली लेखों के पर्दै चीर डालेंगे। ___ भला जिनदत्तसूरि ने जैसे मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई है वैसे कोई ग्रन्थभी निर्माण किया है। दो पंक्तियों के शिलालेख में तो उन्होंने अपनेको सुविहित खरतरगच्छे गणाधीश होना लिख दिया, तब उनके प्रन्थों की लम्बी चौड़ी प्रशस्तियों में खरतर शब्दकी गन्ध तक
SR No.032637
Book TitleKhartar Matotpatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala
Publication Year1939
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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