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________________ खिलाफ होते हुये पूर्वोक्त क्रिया कैसे करा सकते । देखिये इस विषय के और भी प्रमाण मिलते हैं। "जिनवल्लभस्तावत्क्रीतकृतोऽपिचैत्यवास्यपिप्रव्रज्योपस्थानोपधानशून्यःनहीजिनवल्लभेनकस्यापिसंविग्नस्यंपार्श्वेप्रव्रज्यागृहीतातदभावाच न केनाप्युपस्थापितःउपस्थापनाऽभावान्नोपधानमपिआवश्यकादि श्रुताराधन तपो विशेष योगानुष्टनाद्यपि न जातम् । प्र० प० पृष्ट २६१ इस प्रमाण से भी यही साबित होता है कि जिनवल्लभ ने चैत्यवासी गुरु को छोड़ कर आने के बाद किसी के भी पास पुनः दीक्षा नहीं ली थी। यदि जिनवल्लभ किसी संविग्नाचार्य के पास दीक्षा लेकर योगद्वाहन कर लेते तो अभयदेवसूरि के साधु यह कह कर बल्लभ का विरोध नहीं करते कि यह चैत्यवासी गुरु का शिष्य है। कितनेक लोग गच्छराग के कारण यह भी कहते हैं कि अभयदेवसूरि अपनी अन्तिमावस्था में प्रश्नचंद्रसूरि को एकान्त में कह गये थे कि मेरे बाद वल्लभ को प्राचार्य बना देना इत्यादि । पर यह बात बिल्कुल बनावटी एवं जाली मालूम होती है, कारण अभयदेवसूरि अपनी विद्यमानता में वर्द्धमानसूरि को अपने पट्टधर बना गये तो फिर एकान्त में प्रश्नचंद्रसूरि को क्यों कहा था कि वल्लभ को मेरा पट्टधर बनाना ? शायद् इस लेख के लिखने वाले का इरादा अभयदेवसूरि पर मायाचारी या समुदाय में फूट डलवाने का कलंक तो लगाना नहीं था न ?
SR No.032637
Book TitleKhartar Matotpatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala
Publication Year1939
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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