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________________ २० [श्रेष्ठि संघवी धरणा इस घरपबिहारलीर्थ में सं० धरणाशाह का अन्तिम कार्य मूलनायक देवकुलिका के ऊपर द्वितीय खण्ड में प्रतिष्ठित पूर्वाभिमुख प्रतिमा का परिकर है, जिसकी वि० सं० १५०६ वै० शु० २ को रत्नशेखरसूरि के करकमलों से स्थापित करवाया था। यह इससे सम्भव लगता है कि वि० सं० १५१०-११ में सं० धरणाशाह स्वरोवासी हुआ। श्री राणकपुरतीर्थ की स्थापत्यकला धरणविहार नामक इस युगादिदेव-जिवप्रासाद की बनाघट चारों दिशाओं में एक-सी प्रारम्भ हुई और सीढ़ियाँ, द्वार, प्रतोली और तदोपरी मंडप, देवकुलिकायें और उनका प्रांगण, भ्रमती, विशाल मेघमण्डप, रंगमण्डपों की रचना, एक माप, एक आकार और एक संख्या और ढंग की करती हुई चतुष्क के मध्य में प्रमुख त्रिमंजली, चतुष्द्वारवती शिखरबद्ध देवकुलिका का निर्माण करके समाप्त हुई । यह प्रासाद इतना भारी, विशाल और ऊंचा है कि देखकर महान् श्राश्चर्य होता है। प्रासाद के स्तम्भों की संख्या १४४४ हैं। मेघमण्डप एवं त्रिमंजली प्रमुख देवकुलिका के स्तम्भों की ऊंचाई चालीस फीट से ऊपर है। इन स्तम्भों की रचना इतनी कौशलयुक्त संख्या एवं समानान्तर पंक्तियों की रष्टि से की गई है कि प्रासाद में कहीं भी खड़े होने पर सामने की दिशा में विनिर्मित देवकुलिका में प्रतिष्ठित प्रतिमा प्रतोलियों की (पोल ) रचना, परिकोष्ट में अधिकांश देवकुलिकाओं और उनके आगे की स्तंभवतीशाला (वरशाला) तथा अन्य अनिवार्यतः आवश्यक अंगों का बनना आदि। २-मेरे द्वारा संग्रहित लेखों के आधार पर ।
SR No.032636
Book TitleSanghvi Dharna aur Dharan Vihar Ranakpur Tirth ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Sangh Sabha
Publication Year1953
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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