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. परिवर्तन-प्रकरण है। जब हम लोगों में अँगरेजी राज्य स्थापित होने पर अन्य प्रकार के उन्नत विचार आने लगे, तभी अपनी भाषा की उपयोगी उन्नति की इच्छा भी अंकुरित हुई । बस, भाषा में परिवर्तन-काल उपस्थित हो जाने का यही एक प्रधान कारण था। __इस समय में महाराजा मानसिंह, शंकर दरियाबादी, नवीन, पजनेस, सेवक, लेखराज, ललितकिशोरी, गदाधर भट्ट, औध, लछिराम, बलदेव प्रभृति प्राचीन प्रथा के सत्कवियों में हुए, तथा उमादास, निहाल, जीवनलाल, सूरजमल, माधव, कासिम, गिरिधरदास, प्रतापकुँअरि, महाराजा रघुराजसिंह, शंमुँनाथ मिश्र और रघुनाथदास रामसनेही ने कथा-प्रासंगिक कविता की । ललितकिशोरीजी ने एक बार सौर काल की छटा फिर से दिखला दी, और कासिम ने अपने हंस जवाहिर में जायसी के पैरों पर पैर रखना चाहा, पर कासिम की रचना तादृश प्रशंसनीय नहीं है। महाराजा रघुराजसिंहजी ने अनेक विषयों पर अनेक भारी ग्रंथ निर्माण करके हिंदी का अच्छा उपकार किया । स्वामी काष्ठजिह्वा, बाबा रघुनाथदास और महंत सीतारामशरण इस समय के उन महात्माओं में हैं, जिन्होंने हिंदी को अपनी लेखनी द्वारा पुनीत किया । कृष्णानंद व्यास ने पदों का एक संग्रह ग्रंथ बनाया। गणेशप्रसाद फर्रुखाबादी के खड़ी बोलीवाले पद और लावनियाँ प्रसिद्ध हैं, और उनका एतद्देश में अच्छा प्रचार है । टीकाकारों में सरदार और गुलाबसिंह का श्रम विशेषतया प्रशंसनीय है । ये दोनों महाशय अच्छे कवि भी थे। राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद, महर्षि दयानंद सरस्वती, डॉक्टर रुडाल्फ हार्नली, नवीनचंद्रराय और बालकृष्ण भट्ट नवीन प्रकार के लेखकों में हैं, और सच पूछिए, तो विशेषतया ऐसे ही महानुभावों के श्रम का यह फल हुआ कि हिंदी में प्राचीन अलंकृत काल दूर होकर परिवर्तन होते-होते वर्तमान उन्नति का समय हम लोगों को नसीब हुआ।