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________________ परिवर्तन-प्रकरण १०७ भक्ति-पक्ष की कविता प्रौद-माध्यमिक काल में पूरे जोरों पर थी, और तत्पश्चात् उसमें कमी हो चली । पूर्वालंकृत समय की अपेक्षा उत्तरालंकृत काल में उसने फिर कुछ-कुछ उन्नति की, पर परिवर्तन-काल में सिवा महाराजा रघुराजसिंहजी, लेखराज और ललितकिशोरी के और किसी भी नामी कवि ने उसकी ओर ध्यान न दिया । इस काल में ललितकिशोरी ( साह कुंदनलालजी) ने उस ढंग की कविता की, जो प्रायः तीन सौ वर्ष पहले प्रचलित श्री। वीर-काव्य अब बंद-सा हो गया, और गद्य लिखने की प्रथा पहलेपहल जोरों के साथ चली। टीका लिखने की रीति सबसे पहले प्रसिद्ध महाराणा कुंभकर्ण ने चलाई थी, और उनके बहुत दिनों पीछे अलंकृत काल में इस पर कतिपय लोगों ने ध्यान दिया था। कृष्ण और सूरति मिश्र ने बिहारी-सतसई पर अनेक प्रकार से टीकाएँ की, पर अब तक दो-चार को छोड़ किसी दूसरे भाषा-कवि को उत्कृष्ट टीकाकार बनने का गौरव नहीं प्राप्त हुआ था। इस परिवर्तन काल में सरदार कवि ने सूर, केशव आदि अन्य नामी कवियों के उत्तमोत्तम ग्रंथों पर भी टीकाएँ बनाई, और अन्य अनेक लेखकों ने भी टीकाओं पर श्रम किया। इस काल में सबसे बड़ा परिवर्तन यह हुआ कि हिंदी-साहित्य से चार-पाँच सौ वर्ष के बाद व्रजभाषा और पद्य-विभाग का आधिपत्य हटने लगा । जहाँ तक हमको विदित है, सबसे पहले सारंगधर ने संवत् १३५० के लगभग ब्रजभाषा का हिंदी-कविता में प्रयोग किया । प्रायः तीस वर्ष पीछे अमीर खुसरो ने भी इसे अपनाया, पर वे पहलेपहल खड़ी बोली में भी कविता करते थे। १४५० के आसपास नारायण देव ने व्रजभाषा ही में हरिश्चंद्रपुराण-नामक ग्रंथ रचा, और १४८० में नामदेव ने उसमें अनेक ग्रंथ निर्माण किए । इनके पश्चात् चरणदास और वल्लभाचार्यजी ने व्रजभाषा को ही प्रधानता दी और तदनंतर सूरदास और अष्टछाप के अन्य कवीश्वरों ने THHHHHHHHHHH
SR No.032634
Book TitleMishrabandhu Vinod Athva Hindi Sahitya ka Itihas tatha Kavi Kirtan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshbihari Mishra
PublisherGanga Pustakmala Karyalay
Publication Year1929
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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