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मिश्रबंधु-बिनोद होत्रीजी ने बहुत कम कवियों के विषय पूज्य भाव प्रकट किया। ये महाशय तुलसीदास और सेनापति को बहुत अच्छा समझते और पद्माकर एवं ठाकुर को बहुत निंद्य मानते थे । इनकी समालोचना में रियायत का नाम नहीं है। आप प्रत्येक विषय पर अपना स्वतंत्र विचार प्रकट किए विना नहीं रहते थे. चाहे वह श्रोता को अप्रिय ही क्यों न हो। कविता के इतने प्रेमी थे कि जब ॥ बजे दिन को हम इनके यहाँ गए, तब आप स्नान के लिये जा रहे थे, परंतु विना स्नान किए ही ३ घंटे तक हमारे पास बैठे रहे और हमारे बहुत कहने पर भी हमारे चले आने के प्रथम आपने स्नान करना स्वीकार न किया । इनसे बात करने में हमें निश्चय हुआ कि इनके चित्त में कविता-प्रेम-पादप का सच्चा अंकुर है, परंतु इन सब बालों के होते हुए भी इनको प्राचीन कवियों के पद तथा भाव उड़ा लेने की ऐली कुछ बानि सी पड़ गई है कि इनके उत्तम छंदों में भी चोरी का संदेह उपस्थित रहता है। फिर भी इनकी भाषा उत्तम
और कविता प्रशंसनीय है। हम इनकी गणना कवि तोष की श्रेणी में करते हैं।
उदाहरणअँग पारसी से जुपै भाखत हौ हरि पारसी ही को मिहारा करौ; सम नैन जो खंजन जानत तौ किन खंजन ही सों इसारा कसै। भनि संकर संकर से कच तो कर संकर ही पर धारा करौ; मुख मेरो कहौ जो सुधाकर सो तो सुधाकर क्यों न निहारा करौ ॥१॥ प्रवाल से · पायें चुनी-से लला नख दंत दिपैं मुकतान समान ; प्रभा पुखराज-सी अंगनि मैं बिलसै कच नीलम से दुसिमान । कहै कवि संकर मानिक से अधरारुन होरक-सी मुसकान ; विभूषन पान के पहिरे बनिता बनी जौहरी की-सी दुकान ॥२॥ क्रोध में पाकर इस कवि ने बहुत-से भँडोत्रा भी बनाए हैं। थोड़े