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मिश्रबंधु-विनोद पहाड़ों की चोटी से नीचे को खिसलती जाती है । वृक्षों की पीड़ें जो पत्तों में ढकी हुई सी थों, खुलती पाती हैं । नदियों का पतलापन मिटता जाता है और भूमंडल हमारे निकट आता हुआ ऐसा दीखता है, मानो किसी ने ऊपर को उछाल दिया है।"
मेघदूत रस बीच मैं लै चलियो निर विंध को जो मग तेरो निहारती हैं; कटि किंकिन मानो विहंगम पाँति तरंग उठे झनकारती हैं। मनरंजनि चाल अनोखी चलें अरु भौंर सी नाभि उघारती हैं। बतरात है मीत सों आदि यही तिय विभ्रम मोहनी डारती हैं। मीत के मंदिर जाति चली मिलिहैं तहँ केतिक राति में नारी; मारग सूझ तिन्हैं ।न परै जब सूचिका-भेद झुकै अँधियारी । कंचन रेख कसौटी-सी दामिनि त चमकाइ दिखाइ अगारी; कीजियो ना कहुँ मेह की घोर मरें अबला अकुलाइ बिचारी ।
___ रघुवंश
मूल वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थ प्रतिपत्तये । जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ ॥ १ ॥
अनुवाद वाणी और अर्थ की सिद्धि के निमित्त मैं वंदना करता हूँ । वाणी और अर्थ की नाईं मिले हुए जगत् के माता-पिता शिव पार्वती को ॥१॥
__क सूर्यप्रभवो वंशः क चाल्पविषया मतिः । सितीर्घटुंरतरं मोहादुडुपेनास्मि सागरम् ॥ २ ॥
अनुवाद कहाँ वह वंश जिसका पिता सूर्य है और कहाँ थोड़े व्यवहारवाली ( मेरी) बुद्धि, मैं अज्ञानता से कठिन समुद्र को फूस की नाव से उतरना चाहता हूँ॥ २॥