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( ३९ ) : आदि अनेक गोत्र स्थापन कर प्राचार्य श्रीं (जिनदत्त सूरि) ने अपरिमित उपकार किया" ___ "जिनदत्त सूरि चरित्र नामक पुस्तक पृष्ठ, ५९"
इस चरित्र के लेखक को यतियों के जितना भी ज्ञान नहीं था। अर्थात् उन्हें न तो मूल गोत्रका ज्ञान था, और न था मूल गोत्र की शाखा का ज्ञान । उन्होंने तो जिन जिन जातियों को किसी किसी स्थान पर खरतरों की क्रिया करते देखा तो झटसे उन्हें दादा जी स्थापित गोत्र लिख दिया । जरा ध्यान लगा कर देखियेः.. ४-चोरडिया, पारख, गुलेच्छा, नवरिया, ये स्वतंत्र गोत्र नहीं पर आदित्यनाग गोत्र की शाखाएँ हैं। और इसगोत्र की स्थापना जिनदत सूरि के जन्म के १५३२ वर्ष पूर्व आचार्य श्री रत्नप्रभ सूरि के कर कमलों से हुई थी।
८-बहुफणा,दफतरी, पटवा, नाहटा, ये भी स्वतंत्र गोत्र नहीं पर बप्पनाग गोत्र की शाखाएँ हैं। इनके स्थापक भी विक्रम पूर्व ४०० वर्ष में प्राचार्य रत्नप्रभ सरि ही हैं। .
१० पुंगलिया, राखेचा गोत्र की शाखा है । जिसके स्थापक वि० सं० ८७६ में उपकेशगच्छाचार्य देवगुप्तसरि थे।
१४--वच्छावत, मुकीम, फोफलिया ये भी स्वतन्त्र गोत्र नहीं हैं पर बोथरा गोत्र की शाखाएं हैं। और इनके स्थापक कोरंटगच्छीय आचार्य नन्नप्रभ सरि थे।
१६-हरखावत, यह बांठिया गोत्र की शाखा है । इसके प्रतिबोधक आचार्य भाव देवसूरि तपागच्छीय हैं।