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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा / 06
संतुलित विवाद में उलझा दिया गया, तब सुधार युग के बाद तक इस संकट ने अपने दुर्जेय अंशों को मान्य रखा हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता है। जेस्यूट्स (शिथिलाचारी)
ऐसा प्रतीत होता है कि प्रति-सुधारवाद के अग्रणी जेस्यूट्स की दृष्टि में शास्त्र (श्रुति) को प्रमाण मानने के लिए मूलतः आवश्यक यह था कि जनसाधारण को इस प्रकार प्रशिक्षित किया जाए कि वे अपने निर्णयों को अपने मार्गदर्शक धर्मोपदेशकों के निर्णयों के प्रति समर्पित कर सकें । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए यह आवश्यक था कि धर्मसंघीय ( चर्च के ) नैतिक नियमों में सांसारिक आवश्यकताओं को स्थान देकर पाप - प्रकाशन ( पश्चाताप ) को आकर्षक बनाया जाए । सम्भाव्यवाद के सिद्धांत ने इस सुविधाओं को स्थान देने के लिए एक लोकप्रिय पद्धति प्रदान की। यह सिद्धांत यह मानकर चलता है कि जनसाधारण से उस प्रश्न पर गहन समीक्षा की अपेक्षा नहीं करना चाहिए, जिसके लिए विद्वानों में भी मत - वैभिन्य होता है। इसलिए जनसाधारण को किसी ऐसी बात के लिए दोषी नहीं मानना चाहिए, जिसे किसी एक भी विद्वान् ने प्रमाणित माना हो। इसलिए उसके अपराधों का प्रायश्चित्त देने वाले व्यक्ति को यह अधिकार दिया गया कि यदि उसके ( अपराधी के) पक्ष में कोई भी ऐसा मत प्रस्तुत कर पाना सम्भव हो, जो कि उसे निर्दोष सिद्ध कर दे, तो उस प्रायश्चित्त देने वाले व्यक्ति का यह कर्त्तव्य है कि वह अपनी स्वयं की मान्यता के प्रतिकूल भी यदि कोई ऐसी मान्यता हो, तो उसे बताए, ताकि वह अपनी अंतरात्मा को आत्मग्लानि के भार से मुक्त कर सके। जिन बातों के कारण इस सम्भाव्यवाद में चर्च की कठोरता को दूर करने की सच्ची इच्छा से अपनाया गया था, उनके परिणाम 17 वीं शताब्दी में पास्कल के ग्रंथ में प्रकट हुए हैं।
सुधारवाद
किं कर्त्तव्य मीमांसा के विकास की विवेचना करने में हम उस महान् संकट से आगे बढ़ गए, जिसमें होकर 16 वीं एवं 17 वीं शताब्दी के ईसाई धर्म को गुजारना पड़ा। सुधारवाद का प्रवर्त्तन लूथर ने किया था। यदि हम उनके राजनीतिक और सामाजिक उद्देश्यों एवं प्रवृत्तियों, जिनसे यूरोप के कई देश संबंधि थे, से अलग हटकर केवल उनके नैतिक सिद्धांतों को और उन सिद्धांतों के परिणामों