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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा / 63 की अपूर्णता और सतहीपन का परिचायक है। इसमें नैतिक प्रत्ययों के सम्बंध में जन साधारण की धारणाओं का विश्लेषण ही प्रमुख रहा है। अरस्तू का सद्गुण का सामान्य सिद्धांत भी उसकी विवेचना को वस्तुतः सुव्यवस्थित बनाने में अधिक उपयोगी नहीं है। सद्गुण का स्वर्णिम माध्य या माध्यावस्था का उसका सिद्धांत भी सदैव ही सद्गुण की बुराइयों की अधिकता और अल्पता के मध्य कहीं स्थित है। निस्संदेह कलाकृतियों के समान ही मानवीय जीवन का अच्छा परिणाम पाने के लिए नियमन और मर्यादा की आवश्यकता को अभिव्यक्त करना महत्वपूर्ण तथ्य है, किंतु अरस्तू का सद्गुण और दुर्गुण का यह मात्रात्मक विवरण उस अवस्था में भी भ्रांत है, जहां पर असंगति स्पष्ट नहीं है । वह कभी - कभी ऐसे विवेचनों में सनकीपन और अपने अतर्कसंगत दृष्टिकोण का परिचय देता है । उदाहरणार्थ - घमण्ड और बनावटी विनम्रता के बीच एक यथातथ्यता का माध्य प्रस्तुत करते समय वह ऐसा परिचय देता है। न्याय, मित्रता और व्यावहारिक बुद्धि के सम्बंध में अरस्तू के विचार अरस्तू ने न्याय या ईमानदारी के मुख्य सद्गुण को सद्गुणों की पूर्वोक्त सूची छोड़ दिया है और उसका अलग से विवेचन किया है। उनके इसे छोड़ने का आंशिक कारण तो यह है कि प्लेटो की सद्गुण की धारणा से मिश्रित और जन साधारण द्वारा प्रयुक्त इस शब्द के दो भिन्न-भिन्न अर्थ हैं। अपने व्यापक अर्थ की दृष्टि से यह नियमों के उल्लंघन का विरोधी है अर्थात् नियम पालन करना है, जिसे हमने ईमानदारी के नाम से बताने का प्रयास किया है। 22 इस प्रकार सामाजिक दृष्टि से यह समग्र सद्गुणों का ही आधार बन जाता है। अपने संकुचित अर्थ में यह न्याय का सूचक है जो कि अनुचित आचरण या शोषण का विरोधी है। इस संकुचित अर्थ में न्याय को वह प्रथमतया दो भागों में वर्गीकृत करता है - 1. वितरण सम्बंधी न्याय जो कि सार्वजनिक सम्पत्ति, पद आदि को वर्ग के सदस्यों में ही उनके योगदान के अनुरूप समविभाजन में प्रकट है। 2. प्रतिपूर्ति न्याय जो जिसका अहित किया गया उस व्यक्ति के लाभ के लिए उसकी नुकसानी के समान अनुपात में नुकसान करने वाले व्यक्ति से क्षतिपूर्ति करवाने से सम्बंधित है। पुनः यह न्याय यह भी बताता है कि वस्तुओं के विनिमय में न्याय तब प्राप्त होता है, जब विनिमय की दो वस्तुओं में उनके मूल्यों की अपेक्षा से समान अनुपात होता है, अर्थात् एक ओर की गुणात्मक उच्चता को दूसरी ओर की मात्रात्मक उच्चता (अधिकता ) से संतुलित किया जाता है। यद्यपि यह कथन
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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