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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/291 प्रत्यय का व्यवस्थित रूप से विवेचन करने का प्रयास जार्ज स्टवर्ड मूर के द्वारा अपने ग्रंथ (1903) में किया गया है। मार्टिन्यू ने एक प्रारम्भिक-सहजज्ञानवादी के रूप में औचित्य और अनौचित्य के प्रत्ययों को नैतिक-प्रेरकों का लक्षण मानने पर बल दिया थासिजविक ने साध्य के प्रत्यय को आचरण के औचित्य और अनौचित्य का निर्णय करने वाला केंद्रीय-तत्त्व माना था, लेकिन उसने इस साध्य को सुख के रूप में स्वीकार किया था, किंतु मनोवैज्ञानिक-खोज और नैतिक-निर्णयों के विश्लेषण ने इस दृष्टिकोण को अमान्य कर दिया। यदि शुभ सुख नहीं है, तो फिर उसका स्वरूप क्या है? मूर नीतिशास्त्र के तात्त्विक-दृष्टिकोण की आलोचना करता है और उसे अस्वीकार करता है। मूर यह मानता है कि तत्त्व-मीमांसा एक कल्पित अतीन्द्रिय सत्ता की खोज करती है और मूलभूत नैतिक-प्रश्नों के उत्तर के लिए कोई तार्किक आधार प्रस्तुत नहीं कर पाती है। शुभ स्वयं में क्या है? मूर के अनुसार, इस प्रश्न के उत्तर में भ्रांति के अनेक स्रोत हो सकते हैं, जो कि सामान्यतया नीतिशास्त्र में पाए जाते हैं। बिना इस बात का विचार किए कि इन पदों का क्या अर्थ है? यह पूछा जाता है कि कौन-सी बातें सद्गुण या कर्त्तव्य हैं। साध्य या साधन का अथवा यह स्वयं अपने लिए है या अपने परिणामों के लिए, इस बात का विश्लेषण किए बिना यह पूछने का प्रत्यय किया जाता है कि अब और यहां क्या करना चाहिए। उचित या अनुचित की एक कसौटी की खोज बिना यह बात स्वीकार की जाती है कि एक कसौटी की खोज के लिए हमें सबसे पहले यह जानना होगा कि कौन-सी वस्तुएं उचित या अनुचित हैं। इसी प्रकार, आंगिक-एकता के सिद्धांत की भी अवहेलना की गई है। मूर नैतिक-निर्णय के सभी सामान्य विषयों के लिए दो प्रश्न उपस्थित करता है - 1. क्या उस विषय का आंतरिक-मूल्य है, 2.क्या यह सर्वोत्कृष्ट संभावना का एक साधन है। इस प्रकार, मूल्य-प्रत्यय आंतरिक-मूल्य है, जो कि स्वतः शुभ है और जो आंतरिक-मूल्य या स्वतः शुभ पर आश्रित है, वह परतः मूल्य (आश्रितमूल्य) है। यह परतः मूल्य या बाह्य-मूल्य एक आंतरिक-मूल्य का एक साधन है। मिल ने इस बात पर बल दिया था कि परम-साध्य का परीक्षण प्रत्यक्ष-प्रमाण के द्वारा नहीं किया जा सकता है, लेकिन फिर भी उसने सुख को साध्य मानने सम्बंधी अपने दृष्टिकोण के लिए प्रमाण प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया था, यद्यपि उसका यह प्रमाण वांछनीय और वांछित के बीच अस्पष्टता के कारण भ्रांतिपूर्ण था। अनुभवात्मकखोज यह बताती है कि निश्चय ही सुख इच्छा का एकमात्र विषय नहीं है और यहां
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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