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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/245 निर्धारण के लिए आचरण की आकारिक-उचितता के निर्धारण के सिवाय कोई दूसरा बौद्धिक-सिद्धांत नहीं हो सकता और इसलिए कर्त्तव्य के वे सभी नियम, जो कि सार्वभौमिक रूप से बंधनकारक हैं, इसी एक सामान्य सिद्धांत के उपयोग के रूप में स्वीकार किए जाने चाहिए कि कर्त्तव्य का पालन कर्त्तव्य के लिए हो। इसका अपेक्षतया प्रामाणीकरण निम्न रूप में प्राप्त किया जा सकता है। कांट बताता है कि बुद्धि के आदेश सभी बौद्धिक-प्राणियों पर अनिवार्य रूप से लागू होना चाहिए। मेरा अभिप्राय तब तक उचित नहीं हो सकता, जब तक कि मैं इस सिद्धांत को, जिसके अनुसार कार्य करता हूं, सार्वभौमिक-नियम के रूप में संकल्पित करने के लिए तैयार होता। इस प्रकार, हम एक आधारभूत आदेश या नियम पाते हैं। वह यह कि उस सिद्धांत के अनुसार काम करो, जिसका शुभ सार्वभौम नियम के रूप में संकल्प कर सकते हो, साथ ही, कांट यह भी मानता है कि यही नियम सभी विशेष कर्तव्यों का निर्धारण करने के लिए अपेक्षित कसौटी को प्रस्तुत करेगा, क्योंकि यदि हम किसी भी कर्तव्य के उल्लंघन के समय अपनी मानसिक-अवस्था को देखें, तो यह पाएंगे कि हम वस्तुतः अपने उस सिद्धांत को एक सार्वभौमिक-नियम बनाना नहीं चाहते हैं। हमारी अभिलाषा यह होती है कि हम जो करना चाहते हैं उसका विरोधी सिद्धांत सार्वभौम नियम रहे, केवल हम उसमें अपने लिए एक अपवाद रखना चाहते हैं, अथवा उस प्रासंगिक-सुझाव को केवल एक समय के लिए वैध मान लेते हैं। यह नियम अपनी दोहरी तर्क-संगति से आचरण का निरसन देता है। अनैतिकता के कुछ प्रकारों को हम सार्वभौम-नियम के रूप में स्वीकार नहीं कर सकते हैं, जैसे- प्रतिज्ञा को तोड़ने के अभिप्राय से प्रतिज्ञा करना। जब तक प्रत्येक व्यक्ति अपने आप को प्रतिज्ञा तोड़ने के लिए स्वतंत्र मानेगा, तो फिर कोई भी व्यक्ति दूसरों से की गई प्रतिज्ञा को निभाने की चिंता नहीं करेगा (इस प्रकार प्रतिज्ञा करने का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा)। दूसरे कुछ ऐसे नियम हैं, जिन्हें हम सरलता से सार्वभौम-नियम मान लेते हैं, जैसे- लोगों को अपने दुःखों को भोगने के लिए असहाय छोड़ देना, लेकिन हम बिना किसी आत्म (असंगति) के ऐसा संकल्प नहीं कर सकेंगे, क्योंकि जब हम स्वयं दुःख में होंगे, तो यह सोचेंगे कि यद्यपि हम दूसरों की मदद नहीं कर सकते हैं, किंतु दूसरों को हमें मदद करना चाहिए। कांट के सिद्धांत की दूसरी महत्त्वपूर्ण विशेषता उसके कर्त्तव्य (दायित्व) और संकल्प की स्वतंत्रता के बीच के सम्बंध के विकास में है। वह मानता है कि नैतिक-चेतना के द्वारा ही हम अपनी स्वतंत्रता की बौद्धिक
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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