SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 235
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/233 अनुभवातीतवाद ____ अनुभववादी-उपयोगितावादियों तथा विकासवादी-सुखवादियों या शुद्ध और सरल विकासवादियों के बीच के जिन विरोधों का हमने अभी संकेत किया है, वे विरोध अधिकांश रूप में इस सामान्य सहमति के आधार पर हैं कि मानव-जीवन मूलतः समग्र प्राणीय-जीवन का ही एक अंग है और मानव-जीवन के किसी तथ्य की अच्छाई या बुराई का मूल्यांकन, किसी सीमा तक इस समग्र प्राणीय-जीवन पर लागू होने वाले सिद्धांतों के आधार पर ही होना चाहिए, यद्यपि इसका स्पष्ट खण्डन वर्तमान में अधिक प्रचलित एक विचारधारा के द्वारा हुआ है, जो यह मानती है कि एक बुद्धिमान् प्राणी के रूप में मनुष्य का शुभ मूलतः उसकी आत्मचेतना पर निर्भर है। यही आत्मचेतना मानव-जीवन को पशुओं के मात्र संवेदनशील जीवन से अलग करती है। जिन जर्मन-स्रोतों से यह दृष्टिकोण मुख्यतया विकसित हुआ है, उनका विवेचन अगले अध्याय में संक्षेप में किया जाएगा। इंग्लैण्ड में इस सिद्धांत का प्रतिपादन ग्रीन के ग्रंथ में अधिक विस्तार और महत्त्वपूर्ण व्याख्याओं के साथ पाया जाता है। टी. एच. ग्रीन (1836-1842) ग्रीन के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति का शुभ या साध्य अपनी सत्ता की शक्तियों का साक्षात्कार करना है। प्रत्येक व्यक्ति अनेक आत्मचेतन प्राणियों के समूह के रूप में एक के रूप में अपनी सत्ता रखता है, उसमें एक ईश्वरीय-मनस या एक परमचेतना, जो कि विश्व के अस्तित्व में निहित है, आंशिक-रूप में अपने-आप को अभिव्यक्त करती है। ऐसी प्रत्येक आत्मा या व्यक्ति संघटक-बुद्धि के रूप में आत्मचेतन होकर अनिवार्य रूप से अपने आप को एक ऐसी वस्तु के रूप में जानता है, जो प्राकृतिक-विश्व से अलग है और जिसका निर्माण उसकी संघटक-बुद्धि ने किया है, यद्यपि एक दृष्टि से उसका अस्तित्व इस प्रकृति का एक अंग है, किंतु वह केवल प्राकृतिक नहीं है। तदनुसार, उसके उद्देश्य और क्रियाकलाप प्राकृतिक-नियमों के आधार पर विवेचना के योग्य नहीं हैं। वह स्वयं प्रकृति से भिन्न है, इसलिए उसका सच्चा आत्मसंतोष या शुभ न तो उन आवश्यकताओं की पूर्ति में पाया जा सकता, जो कि उसके प्राणीय-शरीर के कारण है और न उन सुखों की कल्पनीय श्रृंखला में है, जो कि उपभोग के साथ ही समाप्त हो जाते हैं। वस्तुतः, उसका सच्चा शुभ अवश्य ही शाश्वत होना चाहिए, जैसा कि उसका वह रूप है, जिसे वह संतुष्ट करता है। निश्चित ही ऐसे शुभ को आत्मचेतन प्राणियों के सामाजिक-जीवन में उपलब्ध किया जाना
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy