SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 183
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा / 181 दूसरे आवेगों की संतुष्टि का परिणाम है। आत्म-प्रेम का अत्यधिक विकास दूसरे आवेगों को निर्बल करते हुए भी उस सुख को आनुपातिक रूप से कम ही निर्बल करेगा, जिसके लिए आत्मप्रेम प्रयत्न करता है। इस प्रकार, शेफ्ट्सबरी की अपेक्षा बटलर के दृष्टिकोण में न केवल मानव प्रकृति को अपने व्यावहारिक पक्ष में अधिक स्पष्ट और प्रकट रूप से आवेगों की ऐसी एक व्यवस्था माना गया है, जिसमें एक अपेक्षित संतुलन और संगति को बनाए रखना आवश्यक है, ताकि वह अच्छी स्थिति में हो सके, साथ ही उसे एक ऐसी व्यवस्था भी माना गया है, जिसमें कुछ कार्यों के प्रेरक शासक एवं नियंत्रक हैं, जबकि दूसरे कुछ स्वाभाविक रूप से उस नियंत्रण के अधीन है। इन दूसरों के सम्बंध में शेफ्ट्सबरी के समान ही बटलर की भी स्पष्ट मान्यता है कि वे सभी आवेग, जिन्हें ठीक प्रकार से स्वाभाविक कहा जा सकता है और वे सभी तथ्य, जो कि मानव प्रकृति की योजना और निर्माण के मौलिक तत्त्व हैं, अपनी क्रियाशीलता का एक • समुचित क्षेत्र रखते हैं । यह बात उन आवेगों के बारे में भी सत्य है, जो कि हानिकारक है, वह उन्हें दो भागों में विभाजित करता है - ( 1 ) केवल वह मूल स्वाभाविक रोष ( नाराजगी) जो कि उसके अनुसार किन्हीं कारणों से उद्भूत तात्कालिक अनिष्ट से आत्मरक्षण करने के लिए सहायक होता है और (2) स्वेच्छिक रोष ( नाराजगी), जिसका मुख्य विषय बुराई और अन्याय है, जो कि मात्र हानि पहुंचाने से भिन्न है। यह ऐच्छिक रोष अप्रसन्नता भी जब सम्यक् प्रकार से संयमित हो, तो सामाजिक दृष्टि से एक उपयोगी आवेग है और मात्र इतना ही नहीं वरन् न्याय के प्रभावशील प्रशासन के लिए अपरिहार्य है। यद्यपि यह अपेक्षा की जाती है कि न्यायाधीश अपराधी के अभियोग पर शांतचित्त से विवेकपूर्वक विचार कर निर्णय करें, फिर भी अनुभव यह बताता है कि वे ऐसा नहीं करते हैं। सही अर्थों में किसी प्रसंग से परे रोष ऐसी कोई चीज नहीं है, जिसके कारण एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति के प्रति दुर्भावनाओं का सूचक हो, उदाहरणार्थ, ईर्ष्या एक ऐसी श्रेष्ठता की इच्छा है, जो अपने साध्य के लिए एक बुरे साधन को ग्रहण कर लेती है। संक्षेप में, हमारी सभी प्राकृतिक क्षुधाएं, आवेग और अनुराग यद्यपि अपने तात्कालिक लक्ष्यों की दृष्टि से अलग अलग होते हैं, फिर भी आत्महित और परोपकार - दोनों के द्वारा अपने अंदर वैयक्तिक और सामाजिक हित की किसी सीमा तक अभिवृद्धि करने की प्रवृत्ति रखते हैं। यद्यपि उनका एक वर्ग, जिसमें शारीरिक क्षुधाएं निहित हैं, प्राथमिक रूप से वैयक्तिक हित की ओर प्रवृत्त
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy