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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा / 156 कि संविदाओं के सामान्य अनुपालन को स्वीकृत कर लेना ग्रोटीअस के लिए विशेष रूप से आवश्यक था, क्योंकि अभिव्यक्त अथवा मौन संविदा के द्वारा केवल सम्पत्ति के उपयोग में हस्तक्षेप नहीं करने के अधिकार से भिन्न सम्पत्ति के ( स्वामीत्व के) अधिकार की धारणा को उसने मान्य कर लिया था। इसी प्रकार एक मूलभूत संविदा वैध प्रभुसत्ता के सामान्य स्रोत के रूप में बहुत पहले ही सामान्यतया मान्य कर लिया गया था। जैसा कि हमनें कहा, उपरोक्त विचार ग्रोटीअस के लिए कोई अजनबी नहीं थे। उस समय उनकी पुस्तक की तात्कालिक एवं महत्वपूर्ण सफलता के कारण प्राकृतिक अधिकार का यह दृष्टिकोण प्रमुख बन गया था और इन प्रश्नों पर ध्यान केंद्रित किया जाने लगा था कि इन नियमों को पालन करने के लिए मनुष्य का अंतिम तर्क क्या है ? उसकी बौद्धिक एवं सामाजिक प्रवृत्ति से कर्त्ता तक इस अनुबंध की संगति है ? किस सीमा तक और किस अर्थ में उसकी प्रकृति वस्तुतः सामाजिक है? हास (1588 से 1679 ) इन मौलिक प्रश्नों का हाव्स ने जो उत्तर दिया, वही इंग्लैण्ड में स्वतंत्र नैतिक दर्शन का प्रारम्भ बिंदु बन गया। प्रथमतः, हाब्स का मनोविज्ञान स्पष्ट रूप से भौतिकवादी है। वह मानता है कि मनुष्य की संवेदनाएं एवं कल्पनाएं, उसके विचार एवं संवेग उसके शरीर के आंतरिक अंगों में होने वाली गति की मात्र प्रतीतियां (अभिव्यक्ति) हैं। तदनुसार हाव्स सुख को नैतिक क्रियाओं की आवश्यक सहायक गति के रूप में और दुःख को बाधक गति के रूप में मानता है । इच्छा का विषय सदैव ही सुख के रूप में या दुःख की अनुपस्थिति के रूप में होता है। इस सिद्धांत का उपरोक्त मनोवैज्ञानिक धारणा से कोई तार्किक सम्बंध नहीं है, किंतु एक भौतिकवादी, एक मनोवैज्ञानिक-पद्धति का निर्माण करते समय शारीरिक आवश्यकताओं से उत्पन्न होने वाले उन क्रियाशील आवेगों के प्रति विशेष ध्यान देना स्वाभाविक ही है, वे आवेग, जिनका स्पष्ट उद्देश्य कर्त्ता के अवयवों का संरक्षण है। सरलीकरण की दार्शनिक आकांक्षा के साथ यह दृष्टिकोण उसे इस निष्कर्ष की ओर ले गया कि सभी मानवीय प्रेरणाएं समान रूप से स्वहित से सम्बंधित हैं। किसी भी कीमत पर नैतिक मनोविज्ञान में हाब्स का यह मुख्य सिद्धांत है कि प्रत्येक व्यक्ति की क्षुधाएं एवं इच्छाएं या तो उसके जीवन के संरक्षण की ओर उन्मुख होती हैं अथवा जिसे वह सुखद मानता है',
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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