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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/149 जिसका स्वयं उपयोग भी किया था, उसे अरस्तवी दर्शन और धर्मसंघ (चर्च) के दोहरे बंधन में जकड़ दिया गया। जब सुधारवाद ने पारम्परिक आप्तता (चर्च की प्रामाणिकता) के पक्ष पर चोट की, तो उसका धक्का अनिवार्य रूप से दूसरे पर भी लगना ही था। लूथर के द्वारा पोप से सम्बंध तोड़ने को बीस वर्ष भी न हो पाए थे कि एक नौजवान रामसने पेरिस विश्वविद्यालय के सम्मुख यह धारणा प्रस्तुत कर दी कि अरस्तु ने जो भी शिक्षा दी थी वह गलत थी। इसके कुछ वर्षों के बाद ही काडनिस, टेलसिअस, पेट्रीटिअस, केम्पेनला और ब्रूनो ने आधुनिक भौतिक विज्ञान के उदय की उद्घोषणा की और जगत् की रचना तथा खोज की सम्यक् विधि के सम्बंध में अरस्तू-विरोधी विचारों को प्रस्तुत किया। यह पूर्व दृष्ट ही था कि ऐसी ही स्वतंत्रता के स्वर नीतिशास्त्र में भी सुनाई देंगे। रूढ़ धारणाओं के साथ संघर्ष के कारण तथा वैयक्तिक निर्णयों की विभिन्नता और सन्मार्ग के प्रति विमुखता के कारण सुधारवाद के पश्चात् ईसाई धर्म अनेकानेक शाखा प्रशाखाओं में विभाजित होता गया। (ऐसी स्थिति में) वस्तुतः कोई भी चिंतनशील व्यक्ति स्वाभाविक रूप से एक ऐसी नैतिक पद्धति की खोज का प्रयास करेगा, जो पूरी तरह से मानव जाति की सामान्य नैतिक अनुभूतियों और सामान्य-बुद्धि पर निर्भर हो और सभी सम्प्रदायों के द्वारा सामान्य रूप से स्वीकृत होने का दावा कर सके। इंग्लैण्ड में इस खोज के परिणाम 17वीं शताब्दी में और उसके बाद सामने आए, जिन पर हम अगले अध्याय में विचार करेंगे। संदर्भ1. यहां पवित्रता का मुख्य लक्षण हृदय की पवित्रता से है। इसे भी व्यापक अर्थ में गृहीत किया गया है। 2. उपवास अपने व्यापक अर्थ में धार्मिक कर्त्तव्यता है। लेकिन ईसाई धर्म के अनुसार यहां विशेष ध्यान रखने की बात है इसे ईसाई धर्म के अनुसार इसे क्रमशः ही अनिवार्य बनाया गया। क्योंकि यह मूलतः एक यहूदी कानून था और ईसाईयत इस सम्बंध में सजग था। 3. उदाहरणार्थ जस्टिन मास्टर का तरतूलीयन साइयपेरिन 4. हमें इसका बाद के काल में सुरियस स्मृति चिन्ह मिलता है, जब विरोधियों
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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