________________
नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/147 सुधारवाद
किंकर्तव्य-मीमांसा के विकास की विवेचना करने में नैतिक विचारक उस महान् संकट से आगे बढ़ गए, जिसमें होकर 16वीं एवं 17वीं शताब्दी के ईसाई धर्म को गुजारना पड़ा था। सुधारवाद का प्रवर्तन लूथर ने किया था। यदि हम उनके राजनीतिक और सामाजिक उद्देश्यों एवं प्रवृत्तियों, जिनसे यूरोप के कई देश सम्बंधित थे, से अलग हटकर केवल उनके नैतिक सिद्धांतों और उन सिद्धांतों के परिणामों को देखने का प्रयास करें, तो उन्हें कई पहलुओं से देखा जा सकता है। सर्वप्रथम इस सुधारवाद ने चरित्रहीन धर्माध्यक्षों के प्रभुत्व की सुविकसित व्यवस्था के विरुद्ध रोपोस्टोलिक ईसाईयत की सरलता को स्वीकार किया। साथ ही धर्मगुरुओं की (बाइबिल की) टीकाओं और चर्च की परम्पराओं के विपरीत बाइबिल के आदेशों को तथा धर्मोपदेशकों की प्रामाणिकता के विरुद्ध वैयक्तिक अंतरात्मा के निर्णय की प्रामाणिकता को स्वीकार किया। इसी प्रकार आत्मशुद्धि हेतु किए जाने वाले प्रायश्चित्तों के लिए पोप के नियंत्रण की अपेक्षा प्रत्येक मानवीय आत्मा के ईश्वर के प्रति उत्तरदायित्व पर बल दिया, क्योंकि प्रायश्चित्त-व्यवस्था ने धर्मगुरुओं (पोपों) को धन के लोभ की विकृत अवस्था पर लाकर खड़ा कर दिया था। यहूदी नियमवाद
और ईसाई धर्म के मौलिक विरोध को पुनर्जीवित करते हुए सुधारवाद ने शाश्वत जीवन के लिए कर्मों के बाह्य स्वरूप की अपेक्षा आंतरिक आस्था को ही एकमात्र मार्ग स्वीकार किया। इस प्रकार पुनः आगस्टिन की ओर लौटते हुए तथा आगस्टिन के मूल मन्तव्यों को नए सिद्धांतों के रूप में अभिव्यक्त करते हुए सुधारवाद ने उस नवपेलेगियनवाद का प्रतिरोध किया, जो कि धीरे से चर्च के आभासी आगस्टिनवाद के रूप में विकसित हो गया था। इसने यह भी माना कि मानव स्वभाव के पूरे पतन का कारण उस 'समता' के विरोध में होना है, जिसके द्वारा मध्ययुगीन दार्शनिकों के अनुसार ईश्वरीय कृपा को प्राप्त किया जा सकता है। सेंटपाल की विनयशीलता को पुनर्जीवित करते हुए उसने ईसाई धर्म के सभी कर्तव्यों को सार्वभौम एवं निरपेक्ष आदेश के रूप में निरुपित किया तथा उस सिद्धांत के विरोध में खड़े हुए कि ईसाई धर्म पुस्तक की शिक्षाओं के अक्षरशः पालन के द्वारा ही समुचित पुण्य प्राप्त किया जा सकता है। सम्पूर्ण ईसाई आज्ञाकारिता के अपरिहार्य निकम्मेपन को प्रकट किया गया। यद्यपि ये परिवर्तन बहुत ही महत्त्वपूर्ण थे, तथापि नैतिक दृष्टि से विचार करने पर या तो निषेधात्मक लगते हैं या बिलकुल ही साधारण से लगते हैं अथवा मन की उस