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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/127 का कोई नैतिक मूल्य नहीं है, जबतक कि उसमें आंतरिक प्रयोजन की सम्यक्ता का अभाव है। जो भी श्रद्धा से उद्भूत है, वह सब पाप है। श्रद्धा और प्रेम का परस्पर अंतर्भाव है और वे एक दूसरे से अवियोज्य है। श्रद्धा ईश्वर प्रदत्त प्रेम के उस बीज से उत्पन्न होती है जो अपनी पारी में श्रद्धा के द्वारा अपनी पूर्णता पर पहुंचता है। जब दोनों के संयोग से आशा की ज्योति जल उठती है और प्रेम के परम पुनीत फल के प्रति आनंद की पूर्ण ललक उत्पन्न होती है। सेन्टपाल के बाद आगस्टिन इन तीनों को ईसाई सद्गुण के तीन प्रमुख तत्त्व मानते हैं इन तीनों के साथ ही वे सद्गुण के प्राचीन चतुर्विध वर्गीकरण अर्थात् प्रज्ञा (विवेक), संयम, साहस और न्याय को अपनी परम्परागत व्याख्या के साथ स्वीकार करते हैं। किंतु इन सद्गुणों के सम्बंध में उनकी अपनी व्याख्या यह है, कि ये सभी सद्गुण अपने आंतरिक एवं सच्चे स्वरूप में उसी ईश्वर के प्रेम के विभिन्न पक्ष या उस प्रेम की प्राप्ति के विभिन्न प्रयास ही है। संयम स्वतः को अपने विषयों से अदूषित रखने वाला प्रेम है, सहनशीलता एक ऐसा प्रेम है जो अपने प्रेमी के प्रति सभी समर्पित करने की तत्परता को सूचित करता है। न्याय केवल प्रेमी के प्रति सेवा की क्रिया है और इस प्रकार सम्यक् अनुशासन है। विवेक (प्रज्ञा) प्रेम का वह रूप है, जो उन वस्तुओं को दूरदर्शिता के साथ चुनता है, जो कि उस प्रेम की साधक है और उन बातों को त्याग देता है जो उस प्रेम में बाधक है। यह ईश्वरप्रेम, मुक्तात्मा के आनंद का मूल केंद्र है। इसी ईश्वर प्रेम के द्वारा मानव का आत्मप्रेम अपना सच्चा विकास करता है और अपने पड़ोसी के प्रति प्रेम भी उसी का ही परिणाम है। यह संसार का उपभोग नहीं वरन् उपयोग करना है, ईश्वरीय-चिंतन आत्मा के विकास (उर्ध्व प्रगति) की अंतिम स्थिति है। यही मात्र ज्ञान है और यही मात्र आनंद है। इस आग्रहपूर्ण रहस्यवादी दृष्टिकोण के विरोध एवं समरूपता की तुलना स्टोइकवाद की दार्शनिक गम्भीरता से की जा सकती है। आगस्टिन के इस सिद्धांत में ईश्वर-प्रेम मानवीय कर्मों के नैतिक मूल्य का निरपेक्ष (परम) एवं विशिष्ट तत्त्व है। आगस्टिन के सिद्धांत में ईश्वर-प्रेम की स्थिति वही है, जो स्टोइकवाद में शुभ के ज्ञान' की है। पुनः यह भी समानता देखी जाती है कि इन दोनों में कोई भी शुभत्व के मूल्यांकन के लिए व्यावहारिक नियमों के साथ अनिवार्य रूप से बंधा हुआ नहीं है। वस्तुतः एक नीतिवेत्ता के रूप में आगस्टिन का मुख्य योगदान ईसाई धर्म के वैराग्यवादी दृष्टिकोण और लौकिक सभ्यता के मध्य समन्वय का प्रयास है। उदाहरणार्थ हम उसे पर्वत पर के उपदेश की अति साहित्यिक व्याख्या के विरोध में सैनिक सेवाओं और न्यायिक
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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