SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा / 124 चर्च की एक आंगिक एकता को स्वीकार किया, तो इसके कुछ उत्साही सदस्यों ने मनुष्य के स्वाभाविक जीवन से भिन्न संन्यास मार्ग की एक नवीन दिशा का समर्थन किया । संन्यासमार्गीय नैतिकता संसार की पूर्ण त्याग और इंद्रिय प्रवृत्तियों का निरोध अब सभी ईसाईयों के लिए मुक्ति का मार्ग नहीं माने गए । यद्यपि यह माना गया कि सुसमाचारसम्मत पूर्णता के प्रवर्त्तकों के द्वारा इनका अनुमोदन किया गया है, तथापि कोई भी ईसाई वैयक्तिक रूप से इसका पालन करने या नहीं करने में स्वतंत्र है। इस प्रकार ईसाई शिक्षाओं की मौलिक सरलता से धीरे-धीरे एक दोहरी नैतिकता विकसित हुई और साधारण ईसाई सद्गुण और संन्यासमार्ग के सद्गुण के बीच एक अंतर प्रारम्भ हुआ, जो कि दार्शनिक और सामाजिक अच्छाइयों के प्राचीन गैर ईसाई विरोध से बहुत कुछ समानता रखता है, एक ऐसी समानता, जिस पर प्राचीन जीवन पद्धति को अभिव्यक्त करने के लिए पवित्र या ईश्वरीय दर्शन जैसे पदों की धारणा के द्वारा पूर्वीय संन्यासवाद में बल दिया गया था। कठोर एकाकी जीवन, ब्रह्मचर्य का पालन, आहार एवं वेशभूषा में बहुत अधिक सादगी, उपवास प्रार्थना, आत्मालोचन, और विश्राम के सम्बंध में नियमित दिनचर्या और कभी-कभी आत्मपीड़न के जंगली अतिरंजित रूपों (पूर्वीय साधु-संस्था, जिसका लोकप्रिय उदाहरण है) पूर्वीय साधु संस्था के द्वारा सांसारिक विषय-वासनाओं के आवरण एवं दुनियादारी की चिंता से मुक्त होने के लिए यह स्वीकार कर लिया गया था कि सांसारिक जीवन की अपेक्षा अपने आपकी ईश्वर की निकटता और पवित्रता के प्रति समर्पित किया जाये पहले सामाजिक जीवन से पूर्णतया अलग होने के लिए एकाकी जीवन की भावना प्रबल हुई और बाद में यह मान लिया गया कि जो इस अधिक पूर्ण मार्ग की अभिलाषा रखते हैं, उनमें से अधिकांश लोगों के लिए ऐसी ही अभिलाषा रखने वाले लोगों के एक व्यवस्थित समाज का नियंत्रण और सहयोग करना अपेक्षित होता है। इस प्रकार, जब ईसा की 4थी शताब्दी में पश्चिमी ईसाई समाज में संन्यासवाद का फैलना प्रारम्भ हुआ था, तो मठ के जीवन के आदर्श की अनुशंसा की गई। यह मठीय-जीवन पूर्व की अपेक्षा पश्चिम में व्यावहारिक अधिक और चिंतन - परक कम रहा। प्रारम्भ में जेनेडिक्ट (लगभग 480 से 543 ई.) के निर्देशन में रचनात्मक सार्थक शारीरिक श्रम को इसके एक नियमित अंग के रूप में स्थान मिला, किंतु बाद में पाश्चात्य
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy