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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/113 सम्प्रदायों के लिए यह बात अमान्य थी, कि एक व्यक्ति वस्तुतः अपने शुभ को जानता है और फिर भी उससे विपरीत अन्य का ऐच्छिक चयन करता है। जैसी कि अरस्तू की मान्यता है यह ज्ञान बुरी आदतों के द्वारा सदैव ही प्रतिबंधित हो सकता है अथवा वासनाओं के द्वारा क्षणिक रूप से इसे नष्ट किया जा सकता है, किंतु यदि यह मन में उपस्थित रहता है तो सदैव ही उद्देश्य की सम्यक्ता को उत्पन्न करेगा। कुछ स्टोइकों के द्वारा भी यह माना गया था कि सच्चा ज्ञान वास्तविक जीवन जीने वाले एक अच्छे आदमी की भी पहुंच से बाहर हैं फिर भी यह तो पूर्ण मानवीय जीवन के एक आदर्श के रूप में उपस्थित रहता है। यद्यपि सभी सांसारिक व्यक्ति अज्ञान एवं दुःखों के कारण पथभ्रष्ट होते हैं तथापि उनके यथार्थ स्वरूप की सिद्धि के लिए ज्ञान उनका लक्ष्य है जिसकी ओर दार्शनिक प्रगति करते हैं। दूसरी ओर ईसाई सदुपदेशकों और शिक्षकों के लिए सामान्यतया सत्कर्मों का आंतरिक प्रेरक तत्व श्रद्धा अथवा भक्ति को माना गया। श्रद्धा . उपरोक्त प्रत्ययों में ज्ञान किसी रूप में एक जटिल नैतिक अर्थ को प्रस्तुत करता है। ऐसा प्रतीत होता है कि ज्ञान विभिन्न मस्तिष्कों में उपस्थित विभिन्न प्रमुख घटकों का एक सम्मिश्रण है, इसका सरल और सामान्य अर्थ श्रद्धा और सहजबोध से इसके विरोध पर बल देता है। श्रद्धा और सहजबोध में ईश्वरीय व्यवस्था के प्रति विश्वास होता है, जिसका प्रतिनिधित्व गिरजा (चर्च) करता है। यह विश्वास ईश्वरीय नियमों, और आश्वासनों के प्रति होता है। इसके बावजूद मनुष्य के प्राकृतिक जीवन पर होने वाले सभी प्रभाव ईश्वर के प्रति विश्वास को तिरोहित करते हैं। इस विरोध से अंत में श्रद्धा और ज्ञान अथवा बुद्धि के बीच एक अनिवार्य विरोध खड़ा हो जाता है और जिसके अनुसार नीतिशास्त्र का धार्मिक आधार उसके दार्शनिक आधार का विरोधी बन जाता है। कभी धर्मशास्त्री यह मानते थे कि ईश्वरीय नियम वस्तुतः ऐच्छिक (इच्छा के अधीन) हैं अथवा संकल्प की अभिव्यक्ति हैं। वे बुद्धि का परिणाम नहीं, उनकी बौद्धिकता को जाना नहीं जा सकता। वास्तविक मानवीय प्रज्ञा को अपने आप को ईश्वरीय दूत (पैगम्बर) की विश्वसनीयता की समीक्षा तक ही सीमित करना चाहिए. उसे ईश्वरीय आदेशों की समीक्षा नहीं करना चाहिए, किंतु प्रारम्भिक ईसाई धर्म में यह परवर्ती प्रतिवाद भी अविकसित ही रहा। विश्वास का अर्थ नैतिक और धार्मिक मान्यताओं से चिपके रहना था। चाहे उनका यथार्थ बौद्धिक आधार कुछ भी
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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