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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा / 109 पहुंचने वाले नैतिक विचारों के विकास के एक संक्षिप्त अध्ययन के पूर्व यह उचित होगा कि हम उस नवीन नैतिक चेतना के मुख्य अंगों की समीक्षा करें, जो ग्रीक रोमन सभ्यता के द्वारा व्यापक बनकर दार्शनिक समन्वय की प्रतीक्षा में थी । इस समीक्षा के लिए सर्वप्रथम ईसाई नैतिकता के सामान्य लक्षणों अथवा उसके नए स्वरूप पर विचार करना सुविधाप्रद होगा। उसके पश्चात् सद्गुण और कर्त्तव्य सम्बंधी उन विशेष बातों की विवेचना करना उचित होगा, जो कि नए धर्म से प्रभावित हैं या जिनमें एक महत्वपूर्ण विकास हुआ है। ईसाई एवं यहूदी ईश्वरीय नियम धर्मतंत्रीय समाज के विधायक नियम के रूप में नैतिकता के विचार में सर्वप्रथम यह ध्यान रखना आवश्यक होगा कि यह विधान ईश्वर के द्वारा निर्मित एवं प्रभावशील एक लिखित नियम है और ईश्वरीय आश्वासन तथा भय के द्वारा नैतिक लक्ष्य (अंकुश ) को प्राप्त करता है । यह सच है कि सुकरात के बाद से ही प्राचीन मान्यताओं में हमें एक अनादि एवं अपरिवर्तनीय ईश्वरीय नियम का विचार मिलता है, जो कि वास्तविक मानव समाज के विभिन्न परिवर्तनशील नियमों एवं रीतिरिवाजों के द्वारा आंशिक रूप में अभिव्यक्त और आंशिक रूप में तिरोहित रहा। किंतु इस नियम की बाध्यताओं को बड़े ही अस्पष्ट रूप से और अधिकांश रूप में दुर्बल ढंग से कल्पित किया गया। इसके सिद्धांत मुख्यतया अलिखित एवं अप्रस्थापित थे और इस प्रकार उस सर्वशक्तिमान् की बाह्य इच्छा की अभिव्यक्ति नहीं है, जो कि श्रद्धापूर्वक समर्पण की अपेक्षा करती है, अपितु देवताओं और मनुष्यों में उपस्थित प्रज्ञा है, जिसके अभ्यास से इस शाश्वत नियम को पूर्णतया जाना और परिभाषित किया जा सकता है। यदि इस युग में प्राचीन नैतिक विचारों की अपेक्षा नियम का प्रत्यय प्रमुख बना है, फिर भी यह नैतिकता को दार्शनिक विवेचना से भिन्न न्यायिक विवेचना की ओर नहीं ले जा सका। दूसरी ओर, ईसाई धर्म में नैतिक विवेचनाओं में शुभाचरण के निर्धारण की पद्धति बहुत कुछ उसी प्रकार की मिलती है जिस प्रकार एक विधिवेत्ता किसी नियम की व्याख्या करता है। यह मान लिया गया था कि जीवन के सभी अवसरों के लिए अव्यक्त रूप से ईश्वरीय आदेश दिए गए हैं और वे नियम विशेष अवसरों में आगमों (धर्म ग्रंथों) में प्रतिपादित सामान्य नियमों के द्वारा अथवा आगमों में प्रस्तुत समान उदाहरणों के द्वारा निरूपित किए जा सकते हैं। यह विधानात्मक पद्धति यहूदी धर्मतंत्र के द्वारा आई थी और जिसका ईसाई धर्म में समन्वयीकरण
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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