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शास्त्र के इतिहास की रूपरेखा / 08
मार्ग को बहुत उत्तम मार्ग माना जाता था। 16 वीं एवं 17 वीं शताब्दी के मध्य किंकर्त्तव्य मीमांसा की पुरानी पद्धति को मान्य रखा गया था। यद्यपि स्वाभाविक. बुद्धि के प्रकाश के द्वारा विवेचित और उससे अनुपूरित धर्म ग्रंथ ही अब वे सब सिद्धांत प्रस्तुत करते थे, जिनके आधार पर अंतरात्मा की समस्याओं का निराकरण किया जाना था। आधुनिक नैतिक दर्शन की ओर
17 वीं शताब्दी में नैतिकता की इस अर्द्धआधारित विवेचना के प्रति रुचि क्रमशः कम होने लगी और अनेक शताब्दियों के पश्चात् पुनः नीति शास्त्र के अध्ययन में नैतिक नियमों के लिए स्वतंत्र दार्शनिक आधार खोजने हेतु शिक्षित वर्ग के द्वारा प्रयास किया जाने लगा। नव जागरण का यह प्रयास परोक्ष रूप से सुधारवाद कारण हुआ। इसे प्राचीन पेगेन संस्कृति ( मूर्ति पूजा आदि) के अवशेषों के साहसपूर्ण अध्ययन के साथ भी जोड़ा जा सकता है, जो कि 15 वीं और 16 वीं शताब्दी में इटली से प्रारम्भ होकर पूरे यूरोप में फैली हुई थी और जो स्वयं ही मध्ययुग में धर्मशास्त्र के प्रति व्यापकं विमुखता ACT आंशिक कारण और आंशिक कार्य भी थी । प्रथमतः इस 'मानवतावाद' के प्रति रोमन धर्म-शासन (पोप के शासन) की अपेक्षा भी सुधारवाद का रुख अधिक विरोधी रहा। नव जागरण के नाम पर पोप के शासन ने किसी सीमा तक मूर्तिपूजा आदि विधर्मी तत्त्वों ( पेगन संस्कृति) को ग्रहण कर लिया था, वह भी सुधारवाद के रोष को भड़काने का एक कारण था। केथोलिक और प्रोटेस्टन्ट धारणाओं के समान ही स्वतंत्र नैतिक दर्शन के विकास में भी सुधारवाद का परोक्ष योगदान कम महत्वपूर्ण नहीं है। पाण्डित्यवाद ने धर्मशास्त्र की दासी के रूप में दर्शन को जीवित रखते हुए उसकी पद्धति को भी उसके स्वामी के अनुरूप अर्थात् धर्मशास्त्रीय बना दिया था। इस प्रकार पाण्डित्यवाद ने जिस पुनर्जीवित बौद्धिक क्रियाशीलता को स्वयं प्रेरित . किया था और जिसका स्वयं उपयोग भी किया था, उसे अरस्तवी दर्शन और धर्मसंघ (चर्च) के दोहरे बंधन में जकड़ दिया गया। जब सुधारवाद ने पारम्परिक आप्तता (चर्च की प्रामाणिकता ) के पक्ष पर चोट की, तो उसका धक्का अनिवार्य रूप से दूसरे पर भी लगना ही था। लूथर के द्वारा पोप के सम्बंध तोड़ने को बीस वर्ष भी न हो पाए थे कि एक नौजवान रामस ने पेरिस विश्वविद्यालय के सम्मुख यह धारणा प्रस्तुत कर अरस्तू ने जो भी शिक्षा दी थी वह गलत थी। उसके कुछ वर्षों के बाद ही