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निर्मलता बढ़ने लगती है। जिसके अनुभव से वह सारे पापकर्मों को न करके पुण्य कर्मों का संचय करता हुआ अपने चित्त को परिशुद्ध करता है। यथा
सब्ब पापस्स अकरणं कुशलस्स उपसम्पदा।
सचित्तपरियोदपनं एतं बुद्धान सासनं॥ अर्थात् किसी भी प्रकार के पाप कर्मों का न करना, अच्छे कर्मों का संचयन करना, अपने चित्त को हमेशा निर्मल बनाये रखना यही बुद्ध का नियम है।
इस प्रकार व्यक्ति अपने अच्छे कर्मों के अनुभव से हमेशा सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर सकता है। जिसके परिणामस्वरूप वह अपनी मानसिक बिमारियों से दूर रहता है। यथा
इध मोदीति पेच्च मोदति कतपुला उभयत्र मोदीति।
सो मोदति सो पमोदति दिस्वा कम्मविसुद्धिमत्तनो॥ अर्थात् इस लोक में मोद करता है और परलोक में जाकर भी पुण्यात्मा दोनों जगह मोद करता है। वह अपने कर्मों की विशुद्धि को देखकर मोद करता है, प्रमोद करता है। ___ इस शोध लेख में आज के सामाजिक परिवेश को देखते हुए ब्रह्मविहार के महत्व पर प्रकाश डाला जायेगा।
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बौद्ध एवं हिन्दू धर्म में तप एवं संन्यास का महत्व आधुनिक परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिकता
चन्द्रशेखर पासवान, ग्रेटर नोएडा
भारतीय समाज में सदियों से अनेक सांस्कृतिक परम्परा विद्यमान रहे हैं उनके अनुरूप धार्मिक निष्ठा एवं विश्वास भी विविधि रही है। प्राचीनकाल से ही एक ओर बौद्धधर्म एवं जैन धर्म या दूसरी ओर सनातन धर्म या भागवत धर्म का विकास हुआ है। छठी शताब्दी ई०पू० में सामाजिक