________________
एक परदेशी विद्वानने लिखा हैं : गौतम बहुत प्रमादी थे । इसलिए भगवान उसे बार बार टोकते थे : समयं गोयम मा पमायए ।
परदेशी विद्वान आगमों के उपर लिखें तो भी इस प्रकारका लिखते हैं । ऐसे परदेशी विद्वान ज्यादा करके धर्म के लिए योग्य नहीं होते ।
परदेशमें धर्म-प्रचार करने का प्रवाह चला हैं । सिर्फ अहंका प्रचार होता हैं । वहां स्व-साधना बिलकुल भूल जाते हैं ।
महेश योगीने विश्वमें बहुत ध्यानकेन्द्र खोले हैं। इसके ध्यानको शशिकांतभाई अपनी भाषामें नशे की गोली कहते हैं । * 'मज्जत्यज्ञः किलाज्ञाने, विष्ठायामिव शूकरः । ज्ञानी निमज्जति ज्ञाने, मराल इव मानसे ॥'
- ज्ञानसार यहां शास्त्रकारों को द्वेष नहीं हैं कि हमको भंड की उपमा दें। किंतु करुणा हैं : विष्ठा जैसी अविद्या छोड़कर जीव ज्ञानी बनें ।
पुद्गल मिलते ही परमकी बात हम तुरंत भूल जाते हैं । हज़ार बार आत्माकी बात सुनी होने पर भी वह बात याद नहीं रहती ।
याद रहें : बुलाये बिना पुद्गल आते नहीं हैं । आप बुलाओ । (राग-द्वेष करो) और पुद्गल आये बिना नहीं रहते ।
विश्वका राजा तो आत्मा हैं । आत्मा पुद्गल के जूठेमें पड़े वह ज्ञानीओंको कैसे अच्छा लगे? कोई भी पदार्थ मतलब पुद्गल का जूठा ही । जितना धान्य हैं वह क्या हैं ?
गांधीधामवालोंने तो मुझे कहा था : हमारा कारखाना मतलब विष्ठाका कारखाना ! विष्ठा ज्यादा उतना खाद जोरदार ! इस खादसे ही धान्य तैयार नहीं होता ? यद्यपि पुद्गल परिणमनशील हैं। इसके गुणधर्म बदलते जाते हैं । किंतु हैं तो सब इसका ही न ? अनंत जीवोंने भोगा हुआ ही हैं न ?
यह सब ज्ञान आत्माको प्राप्त करने के लिए ही हैं, जानकारी का भार बढाने के लिए नहीं हैं । गधेको देखा हैं न? हम सिद्धाचल की यात्रा के लिए जाते तब सामने से गधे आते थे न ? ये गधे बहुत भार उठाते हैं, किंतु क्या मिलता हैं ? शायद चंदनका भार
(५८ommooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ४)