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________________ Meagy पू. भुवनभानुसूरिजी आदि के साथ, सुरत, वि.सं. २०४८ २४-९-२०००, रविवार अश्विन कृष्णा - ११ (११) लोगनाहाणं। जिस क्षण हम सन्मुख होते हैं उसी क्षण प्रभु की करुणाका साक्षात्कार होता हैं । मछली पानीमें ही हैं । सिर्फ मुंह खुले उतनी ही देर हैं । प्रभुकी करुणा बरस ही रही हैं, हमारे आसपास करुणा ही करुणा हैं, किंतु हम उसका स्पर्श प्राप्त नहीं कर सकते । _ 'पानी में मीन प्यासी, मोहे देख आवे हांसी ।' ऐसी हमारी दशा हैं । सूर्यकी तरह केवलालोकसे भगवान संपूर्ण विश्वको भर देते हैं। इस अपेक्षासे भगवान विश्वव्यापक हैं। अन्य दर्शनीयोंने भगवानको 'विभु' कहे हैं, वह इस तरह घटित होता हैं । हम भी उनको इसी अपेक्षा से 'सर्वग' कहते हैं । (सर्वज्ञः सर्वगः शान्तः, सोऽयं साक्षाद् व्यवस्थितः ।) भगवान कहां हैं ? ऐसा मत पूछो, भगवान कहां नहीं हैं? ऐसा पूछो । भगवानकी करुणा चारों तरफ होने पर भी मछली की तरह हम प्यासे रहें यह कैसी करुणता ? तत्त्वद्रष्टा तो कहते हैं : भगवान (कहे कलापूर्णसूरि - ४ 066666666655 ४५)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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