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________________ वचनानंद का एहसास करो । वचन-रति छोड़ दो । कायानंद का मजा लो । काय-रति छोड दो । किसीने कहा : अच्छा गाया ! और हम प्रभु-भक्तिमें से अहंमें आ जायेंगे । मैंने साधना कहां की ? साधना प्रभुने करवाई हैं । ऐसा नही बोल सकते ? 'हे प्रभु ! तेरा आभार । तेरे शब्द बोलने का मुझे अवसर दिया ।' इस प्रकार व्याख्यान के बाद मैं बोलता हूं । ___ 'तेरी साधना की प्रशंसा लेकर हे प्रभु ! तू मुझे निर्भार बना दे ।' ऐसे प्रभुसे प्रार्थना करो । * झेन आश्रममें लिखा होता हैं : No Mind Please. No Sound Please. * मनके आधार पर प्रभु-शब्द नहीं झेल सकते । सिर्फ हृदय से ही प्रभु शब्द झेल सकते हैं । * ज्ञाततत्त्वता : बुद्धि से, आत्मतत्त्वता : हृदय से मिलती हैं । - वचन-काया के आनंद में हमको झूमना हैं । वचन-काया की रति से दूर रहना हैं । जिससे तुच्छ बाबत गौण बन जाय । * निद्रामें अज्ञान, जागृतिमें विचार - इसके बिना मन कुछ नहीं जानता हैं । सुत्ता अमुणी, मुणिणो सया जागरंति । निद्रा, विचार न हो तब ही परम जागृति आ सकती हैं । गुर्जिएफने साधकको घड़ी देकर कहा : 'सेकन्ड के कांटे को दो मिनिट तक अपलक तू देख ।' दो मिनिट के बाद - 'सेकन्ड के कांटे को देखनेवालेको तू देख ।' दृश्योंमें खोये हुए हम दृष्टा को भूल गये हैं । हम ज्ञानकी वजह से ज्ञेयमें डूबकर रागी-द्वेषी बनते हैं । ज्ञानी दृश्यसे-ज्ञेयसे दूर रहता हैं । यही भिन्नता हैं । (कहे कलापूर्णसूरि - ४omooooooooooooooom २९)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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