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'वस्तु अनंत स्वभाव छे, अनंत कथक तसु नाम'
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भगवान के बिना ऐसा तत्त्व कौन बताए ? भगवानने अर्थसे, गणधरोंने सूत्रसे बनाइ हुई द्वादशांगी मिली वह हमारा महापुण्योदय हैं ।
पू. देवचन्द्रजी
* आज के दिखते दृश्यसे किसे आनंद न हो ? ध्यान को प्रेक्टीकल बनाने की जरूरत हैं । आज ध्यानके नाम पर ऐसे प्रयोग चल रहे हैं, जो ध्यान कहे जाये या नहीं ? वही सवाल हैं । इसीलिए ही मैं ' ध्यान शिबिर' शब्दका विरोधी हूं । हमारे यहां, ध्यान न धरे तो अतिचार लगे ऐसा विधान हैं । परंतु हराम हैं : हमने कभी ध्यान धरा हों ।
ध्यानसे भड़कते हैं, परंतु साधु जीवन ही ध्यानमय हैं, वह हम जानते ही नहीं हैं । 'क्रिया सर्वाऽपि चिन्मयी' अप्रमत्त साधुकी हर क्रिया चिन्मय - ज्ञानमय हैं । इसीलिए ही ये क्रिया ध्यानविघातक नहीं, किंतु ध्यान- पोषक हैं ।
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ये मेरे आपके आवश्यक नहीं हैं,
* धर्म ध्यान न हो तो आर्त्तादि ध्यान रहेगा ही । आज स्थिति ऐसी हो गयी है : लोग आक्षेप करते हैं : जैनोंमें ध्यान नहीं हैं ।
इसका जवाब देने के लिए ही इसका आयोजन हुआ हैं । सुविहित मुनिकी चर्या न करें तो दोष लगता हैं । मनको केन्द्रित करने के प्रयत्न तो अपनी आवश्यक चीज हैं । छः आवश्यकों में क्या हैं ? जीवनभर समतामें रहना वह सामायिक । यह सामायिक की प्रतिज्ञा चतुर्विध-संघ समक्ष हमने ली हैं ।
विषय-कषाय से तप्त हूं। अभी मुझे समता के सरोवरमें नहाना हैं । ऐसी भावना जगे वही सच्ची सामायिक कर सकता हैं । समता हम मानें उतनी सरल नहीं हैं । इसे प्राप्त करने के लिए बाकी के पांच आवश्यक हैं ।
गणधरों के हैं । चिन्ताभावनापूर्वकः स्थिराध्यवसायः ध्यानम् ।
ध्यान- विचार
ध्यान के भेदमात्र अमुक ही नहीं हैं, जितनी - जितनी मनकी अवस्थाएं हैं उतने ध्यानके प्रकार हैं ।
( कहे कलापूर्णसूरि ४
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कळळ २३