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म. भी तुरंत ही पधारे । वातावरणमें खिन्नता छा गई... मिनिटदो मिनिटमें पूज्यश्री की पुनित आत्मा नश्वर देह का त्याग कर विदा हो गई । सबकी आंखोंमें अश्रुधारा निकल आई । एक पवित्र शिरच्छत्र का सदा का वियोग किसकी आँखों को नहीं रुलाता ?
समुदाय की जवाबदारी स्वीकारते सूरिदेव :
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इस प्रकार एक के बाद एक बुझुर्गों की छत्रछाया दूर होती गई और समुदाय की संपूर्ण जवाबदारी अपने सिर पर आ पड़ी । आत्म-साधक, अध्यात्म-मग्नं साधक को यह खटपट पसंद नहीं पड़ती होगी, ऐसा हमें क्षणभर के लिए विचार आ जाता हैं । जिन्हें आत्मसाधना करनी हो उन्हें तो सब जंजाल को छोड़कर किसी गुफामें चले जाना चाहिए - ऐसा भी किसी को विचार आ सकता हैं | लेकिन ये आत्मसाधक कुछ न्यारे ही थे । वे प्रवृत्तिमें निवृत्ति और निवृत्तिमें प्रवृत्ति के अजोड़ साधक थे । निश्चय और व्यवहा·: उभय के ज्ञाता थे । मात्र स्वयं के लिए साधना नहीं, परंतु दूसरों का भी हिस्सा हैं । इसलिए वहाँ भी दुर्लक्ष का सेवन नहीं कर सकते और दुर्लक्ष का सेवन करे तो बोधिदुर्लभ बनते हैं, ऐसा जाननेवाले आचार्यदेवने समुदायकी जवाबदारी भी स्वीकारी । चतुर्विध संघ तीर्थ हैं । तीर्थ की सेवा यही तत्त्व-प्राप्ति का सच्चा उपाय हैं। इस रहस्य को आत्मसात् करने के लिए वे अपनी आंतरिक साधना के साथ अपने आज्ञावर्ती साधु-साध्वी के जीवन का योगक्षेम करने की जवाबदारी भी सक्रिय रूप से अदा करने में आनंद मानते रहे ।
पूज्यश्री का व्यक्तित्व :
एक क्षण जितना भी समय प्रमादमें न जाये, ऐसी नित्य ज्ञान- दर्शन और चारित्र आराधनामय जीवन-चर्या, शिष्य वर्ग को शास्त्र- पठन आदि अध्ययन कराने की प्रवृत्ति, तत्त्वजिज्ञासुओं के चित्त को योग्य समाधान और संतोष देने की अद्भुत कला, रात्रि के समय जाप, ध्यान, योग इत्यादि की साधनामें सदा तन्मयता... इत्यादि पूज्य कलापूर्णसूरिजी म. के झलकते व्यक्तित्व के चमकते पासे हैं । सचमुच पूज्यश्री वर्तमानयुग की एक विशिष्ट विभूति हैं ।
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