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________________ इस प्रकार चातुर्मास की अपूर्व धर्म-आराधना के उपर सुवर्णकलश चढा । राधनपुरमें बड़ी दीक्षा : फलोदी से विहार करके पूज्य रत्नाकर वि.म. पूज्य कंचन वि.म. तथा नूतन मुनि क्रमशः गुजरात की तरफ आये । उस समय पूज्य आचार्य भगवंतश्री विजयकमकसूरीश्वरजी म.सा. राधनपुरमें बिराजमान थे । सब मुनि पूज्य आचार्यश्री की निश्रामें पहुंचे । वात्सल्यकी जीवंत मूर्तिसमान पूज्य आचार्यश्री के दर्शन-वंदन से मुनिओं के अंतर आनंद से झूम उठे । प्रशांत रस बहाती उनकी भव्य मुद्रा को देखते ही लगा कि सचमुच ऐसे गुरु ही संसारसे पार उतारेंगे, संयमकी साधनामें स्थिर करेंगे । पूज्य आचार्यश्रीने नूतन मुनिओं को बड़ी दीक्षा के जोगमें प्रवेश कराया। उल्लासपूर्वक योगोद्वहन करते मुनिओंने निर्विघ्नरूप से पूर्ण किये । और वि.सं. २०११, वै.सु. ७ के शुभ-दिन बड़ी दीक्षा की मंगलविधि हुई ।। इस तरह दीक्षा के बाद लगभग एक वर्ष के बाद बड़ी दीक्षा पूज्य आचार्य भगवंत के निर्मल वात्सल्य के साथ छःओं नूतन मुनि तप, त्याग, विराग, विनय, सेवा और स्वाध्यायादि के अभ्यासमें पुरुषार्थशील बने । संयम-साधना के लिए वर्षों से झंखना करते अक्षयराजकी आत्मा आनंद से नाच उठी । मानो बंधनमें से आत्ममयूर मुक्त बना और अनंत आकाश की तरफ उड्डयन शुरु किया । मुनिश्री कलापूर्णविजयजी (अक्षयराज) इस बात को बराबर जानते थे कि दीक्षा पूर्णाहुति नहीं, किंतु प्रारंभ हैं । यह शिखर नहीं, लेकिन शिखर पर चढने की पगदंडी हैं । बहुत लोग ऐसा मानते हैं कि दीक्षा ली मतलब काम हो गया, अब कुछ करने की जरुरत नहीं हैं, परंतु यह बात बराबर नहीं हैं । दीक्षामें प्रवेश का अर्थ ही साधनामें प्रवेश हैं । दीक्षा का जीवन यानि साधना का जीवन । दीक्षित मुनि मतलब साधना के मार्ग पर दिन-प्रतिदिन आगे बढती साधक आत्मा ! (कहे कलापूर्णसूरि - ४000000 w ww aasan ३६१)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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