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कर रहे थे । अक्षयराज के आनंद की तो आज कोई अवधि ही नहीं थी । अनेक वर्षों का स्वप्न साकार होते देख कौन से आदमी को आनंद का अनुभव नहीं होता ? बचपन की भावना आज सच बन रही थी । विजयलब्धिसूरीश्वरजी महाराजने की हुई आगाही आज तद्दन सत्य बनती दिखाई दे रही थी । (वि.सं. १९९६में फलोदी चातुर्मास बिराजमान आचार्यश्री विजयलब्धिसूरीश्वरजी म.सा.ने अक्षयराज का हाथ देखकर कहा था कि - तू दीक्षा अवश्य लेगा । उस समय अक्षयराज परिणीत थे और दीक्षा की भावना मनकी गहराइमें सिकुड़ कर कहीं सो गयी थी ।)
अक्षयराज के लिए विशेष आनंद की बात तो यह थी कि खुद के कारण समग्र कुटुंब और श्वसुर भी संयम के मार्ग पर जा रहे थे ।
दीक्षार्थीओं के वरसीदान का वरघोड़ा आगे बढते बढते जैन न्याती न्योरे के विशाल पटांगणमें पहुंचा, जहाँ दीक्षा के लिए विशाल मंडप बांधा गया था ।
मंडपमें दीक्षा की मंगल - विधि शुरू हुई । रजोहरण प्रदान हुआ । उस समय का दृश्य सचमुच रोमांचक था ।
हाथमें रजोहरण लेकर आनंद से नाचते दो बालकों को देखकर किसका हृदय गदगद् नहीं हुआ होगा ?
स्नान - मुंडनविधि के बाद मुनि-वेशमें सज्ज बने मुमुक्षुओंने मंडपमें प्रवेश किया तब तो सचमुच किसी अद्भुत सृष्टि का निर्माण हुआ हो वैसा लग रहा था । दीक्षा मंडपमें उपस्थित हुए सब लोगोंकी आंखें छोटे बाल मुनिओं पर टिकी हुई थी । स्त्रियाँ तो देख देखकर मानो तृप्त ही नहीं हो रही थी । उस समय सबके हृदयमें जो आनंद का सागर उछल रहा था उस आनंद को व्यक्त करने के लिए शब्द भी असमर्थ थे । निरवधि आनंद को सीमित शब्दोंमें कैसे समा सकते हैं ?
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पूज्य मुनिश्री रत्नाकरविजयजी म. तथा पूज्य मुनिश्री कंचनविजयजी म. दीक्षाकी मंगल विधि करा रहे थे । दिग्बंधकी क्रिया होने के बाद पांचों नूतन मुनियों के शुभ नामों की इस प्रकार घोषणा की गई :
कहे कलापूर्णसूरि ४
06ळ ३५९