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रतनबहन धर्म की शरणमें :
जब मानव के पास बाह्य कोई आधार नहीं रहता तब वह धर्म की शरणमें जाने इच्छता हैं । रतनबहन को भी आखिर वही शरण लगा । वे सामायिक लेकर बैठ गये और चिंतन करने लगे : क्या करूं ? उन्हें पतिदेव का मार्ग कल्याणकारी लगा ।
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सामायिक पूरी हो जाने के बाद रतनबहनने पतिदेव को कहा : आप संयम के कल्याणकारी मार्ग पर जा रहे हो, वह बहुत ही अच्छा हैं । मैं उसमें क्यों विघ्नरूप बनूं ? किंतु हमारा भी कुछ विचार किया या नहीं ? हमारा क्या ? हमारी भी संयममें रुचि जगाओ तो हम भी तैयार होकर आपके साथ दीक्षा लेंगे । अतः आप त्वरा न करें । हमारी राह देखें ।
इस बात से अक्षयराज द्विधामें पड़ गये । एक तरफ खुद की प्रतिज्ञा और दूसरी तरफ घरवालों की रुक जाने की याचना । क्या करूं ?
महात्मा की सलाह :
वहाँ विराजमान पू. सुखसागरजी के पास जाकर सलाह मांगी । उन्होंने कहा कि भाई ! तेरी भावना श्रेष्ठ हैं, परंतु त्वरा करनी योग्य नहीं हैं । मात्र अपनी आत्मा का हित कर लेना योग्य नहीं हैं । कुटुंब के जीवों का हित होता हो तो धैर्य रखनेमें ही लाभ हैं । फिर दीक्षा लेने से पहले गुरु का परिचय करना पड़ता हैं । साधुक्रिया आदि का अभ्यास करना पड़ता हैं और विहार आदि की तालीम लेनी पड़ती हैं । इसलिए २ - ३ साल तुझे निकालने चाहिए । इससे तुझे भी लाभ होगा और तेरे बालकों को भी तू योग्य रूप से तालीम देता रहेगा । उन्हें संयम की रुचि जग जाय और वे अगर तैयार हो जाये तो तेरी जो प्रतिज्ञा हैं उसमें विघ्न नहीं पड़ेगा किंतु ज्यादा लाभ होगा और इस तरह विधिपूर्वक सब करने से ही संयम की साधनामें सफलता प्राप्त हो सकेगी ।
महात्मा की यह सलाह अक्षयराज को समुचित लगी । उसके अनुसार धीरे... धीरे... व्यापार वगैरह वे समेटने लगे और पू. सुखसागरजी म. के पास नवतत्त्व प्रकरण आदि का अभ्यास शुरु
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१८ कहे कलापूर्णसूरि ४