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त्रास को दूर करने का एक ही मार्ग हैं : परमात्मा द्वारा प्ररूपित प्रव्रज्या का स्वीकार ।
दीक्षा के लिए दृढ प्रतिज्ञा :
इस तरह अक्षयराजने दीक्षा स्वीकारने का दृढ संकल्प कर लिया और यह निर्णय धर्मपत्नी को भी कह दिया : अब मुझे दीक्षा ही लेनी हैं । का.शु. १५ के बाद जो कोई भी प्रथम मुहूर्त आयेगा उस दिन मैं दीक्षा लूंगा और अगर रजा नहीं दो तो चारों आहार का त्याग । यह मेरी प्रतिज्ञा हैं ।
रतनबहन की चिंता :
दीक्षा की इस बात को प्रथमबार ही सुनकर रतनबहन के उपर तो मानो बिजली टूट पड़ी । वे तो तब चिंतामें पड़ गये । पतिदेव के सामने बोलना, झगड़ा करना या आज्ञा न माननी वह उनके स्वभावमें ही नहीं था। पतिदेव की यह बात खुद को बिलकुल अप्रिय थी.. लेकिन अब करना क्या ? उस होशियार नारीने तुरंत ही अपने पिता मिश्रीमलजी को इस बात के समाचार दिये ।
रतनबहनने सोचा था कि मुझसे ये नहीं मानेंगे लेकिन मेरे पिताजी से तो अवश्य मानेंगे और वैराग्य का उभार ठंडा हो जायेगा उसके बाद कोई फीकर नहीं । लेकिन हुआ उलटा । पिताश्री का थोड़े ही दिनोंमें प्रत्युतर आया और रतनबहन तो स्तब्ध ही हो गये । अपेक्षा से अलग ही जवाब मिला । चिंता दूर होने की जगह बढ गयी । रतनबहन को लगा कि यह तो विचित्र हुआ । 'घरना बल्या वनमां गया, ने वनमा लागी आग ।' (घर के जले वनमें गये और वनमें भी आग लगी ।) रतनबहन के पिताने ऐसा क्या लिखा था कि जिससे रतनबहन चिंतित हुए ? मिश्रीमलजीने लिखा था :
___'अक्षयराज की दीक्षा की भावना जानकर अत्यंत आनंद हुआ । मेरी भी वर्षों से दीक्षा लेने की भावना हैं, परंतु अब तक ले नहीं सका... लेकिन मुझे अगर ऐसा उत्तम सहयोग मिल जाये तो तुरंत ही दीक्षा की भावना हैं । आप भी उन्हें अनुकूलता कर दें। आपकी और दोनों बच्चों की कोई चिंता न हो उस प्रकार सारी व्यवस्था हो जायेगी ।' .. पति और पिता दोनों एक हो गये। अब व्यथा कहाँ प्रकट करनी ? कहे कलापूर्णसूरि - ४6600 6600 6600 ३५३)