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________________ था, परंतु स्पर्श भी नहीं करता था । हलके साहित्य को पढना वह जहर पीने के समान मानता था । बीभत्स साहित्य से बीभत्स विचारों की उत्पत्ति होती हैं । और उससे आचार भी उसी प्रकार का बनता हैं । आचार का बीज विचार हैं । जिसने स्वयं के हृदय-क्षेत्रमें शुभ विचारों के बीज बोये हैं वह अवश्य शुभ आचारों की फसल काटेगा । जो शुभ-आचारों का स्वामी बनेगा वह अक्षयराज ज़हर के प्याले समान खराब पुस्तकों का स्पर्श कैसे कर सकता हैं ? __अक्षय को एक बात पर पक्का भरोसा था : सर्वत्र ज्ञानरूप से प्रभु विलस रहे हैं । जगत के कोने-कोने में भगवान की ज्ञान-दृष्टि पड़ रही हैं । एक भी अपवित्र विचार कैसे हो सकता हैं ? इसे पैदा करनेवाले साहित्य का स्पर्श हो ही कैसे सकता हैं ? अक्षय दिमाग का कोना-कोना साफ कर पवित्र विचारों से भरने का प्रयत्न कर रहा था । वह जानता था, किया हुआ कोई भी शुभाशुभ विचार अपने संस्कारों को छोड़ता जाता हैं और जिंदगी को आकार देते जाता हैं । जिंदगी दूसरा क्या हैं ? विचारों की श्रेणि और उससे बनता आचार वही क्या जिंदगी नहीं हैं ? प्रभुप्रेमी और संगीतप्रेमी अक्षय : अक्षयराज को पठन के शौक के साथ संगीत का भी शौक था । संगीत के शौक का कारण था : प्रभु-भक्ति । भक्ति से निरपेक्ष संगीत का शौक मारक हैं लेकिन भक्ति के लिए होता संगीत तारक हैं । भक्ति की जमावट संगीत के कारण जोरदार होती हैं । अतः अक्षय स्नात्रपूजा, बड़ी पूजा, भक्ति भावना इत्यादि प्रसंगोंमें अवश्य जाता । वहाँ के संगीत मंडलमें स्वयं संगीत सीखता और स्तवन आदि गाने की प्रेक्टीस करता । उसका कण्ठ मधुर था इसलिए संगीत सीखते समय न लगा । थोड़े ही समयमें तो वह हार्मोनियम भी सीख गया। फिर स्वयं भी पूजा गाता, गवाता और दूसरे गायकों के साथ भी मिल-जुल जाता । अक्षय दररोज सुबह प्रभु-पूजा करता । २ से ३ घण्टे अत्यंत (कहे कलापूर्णसूरि - ४0 sasaraswwwwwwwwwwww ३४५)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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