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________________ सीमित नहीं थी । वह पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु आदिमें भी चैतन्य देखता । उसकी हत्यामें भी वेदना का अनुभव करता । क्योंकि जानता था कि पृथ्वी आदिमें भी चैतन्य होता हैं । जब वह मकान निर्माण कार्य के आरंभ - समारंभों में रगड़ते चूने को देखता, कुम्हार की भट्टीमें मरते जीवों को देखता, चक्की, कुम्हार का भट्ठा इत्यादिमें होती हिंसा को देखता तब उसका हृदय द्रवित हो उठता, उसका मन बोलने लगता : अरेरे, पांच-पच्चीस साल की जिंदगी के लिए आदमी कितने आरंभ - समारंभों में डूबा रहता हैं ? कितने जीवों की निरर्थक कतल करता हैं ? कितने पापों का उपार्जन करता हैं ? थोड़े पैसे के लिए, थोडी-सी जिंदगी के लिए इतने सारे पाप ? कमाया हुआ धन, बनाये हुए बंगले, पाला हुआ परिवार सब कुछ यहीं रखकर जाना और कमाये हुए पापों को साथ लेकर जाना उसके फलस्वरूप नरक निगोद के कातिल दुःखों को सहन करने - ऐसी मूर्खता कौनसा समझदार आदमी करेगा ? छोटे-से अक्षयमें कितनी उन्नत विचारणा ? कोमल हृदय के बिना ऐसी विचारणा असंभव हैं । मात्र उसका मन ही नहीं, उसका तन भी कोमल था । इसलिए गली के लोग तथा स्नेहीजन उसे 'माखणीयो' कह कर बुलाते । कहानी सुनता अक्षय : फलोदीमें एक बड़ी उम्र के धार्मिक वृत्तिवाले बहन रहते थे, जिनका नाम था : मोड़ीबाई । (गुजराती- प्रथम आवृत्तिमें तथा समाजध्वनि आदि में मणिबेन छप गया है - वह गलत हैं ।) उनका कंठ मधुर और धार्मिक ज्ञान भी अच्छा । वे रास, सज्झाय, ढाल, चरित्र इत्यादि गाते, पढते और समझाते । गली के लोग साथ मिलकर उमंग-उत्साह से सुनने आते, जिसमें यह अक्षय भी जाता । उसे इन महापुरुषों की जीवन - कथा सुननेमें अपूर्व आनंद आता और उन घटनाओंमें से प्रेरणा मिलती । शालिभद्र, धन्नाजी, गजसुकुमाल, मेतार्यमुनि, जंबूस्वामी इत्यादि की कथाएं सुनते अक्षय को भी विचार आते : 'मैं कब ऐसा बनूंगा ? कब संसार को छोड़कर जैनशासन का अणगार बनूंगा ? ३४२ oooooooo १८८८ कहे कलापूर्णसूरि - ४ - -
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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