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________________ 'आरोपित सुख-भ्रम टल्यो रे, भास्यो अव्याबाध; समर्थ्य अभिलाषिपणुं रे, कर्ता साधन साध्य ।' - पू. देवचंद्रजी समाधि दशा पैदा होते ही सब भ्रम टूटकर चूर-चूर हो जाता हैं । एक नवकार के काउस्सग्गमें भी यह ताकत हैं आपको समाधि दे दें । भले एक नवकार बहुत छोटी क्रिया हो, परंतु उसकी ऊर्जा बहुत हैं । लेकिन हमारी क्रिया तो इतनी सुपरफास्ट चलती हैं कि बेचारी समाधि को कहीं प्रवेश करने की जगह ही नहीं मिलती । हमारी क्रिया अर्थात् राजधानी एक्सप्रेस ! हम क्रिया करने के लिए ही करते हैं । परंतु यही मेरा आनंद हैं । ऐसा मानकर कभी क्रियाएं नहीं करते । अगर इस तरह क्रियाएं करें तो प्रत्येक क्रिया ध्यान बन जाये, प्रत्येक काउस्सग्ग समाधि बन जाये । प्रत्येक काउस्सग्ग के समय हमारे श्रद्धा, मेधा आदि बढते ही जाने चाहिए । श्रद्धा हो तो ही मेधा आती हैं । मेधा हो तो ही धृति आती हैं । धृति हो तो ही धारणा आती हैं । धारणा हो तो ही अनुप्रक्षा आती हैं । * यात्रा तलहटी से ही शुरु हो सकती हैं । जहाँ हम हों वहीं से साधना का प्रारंभ हो सकता हैं । घाटीमें रहनेवाला आदमी कभी शिखर से यात्रा शुरु कर नहीं सकता । तलहटी पर से उपर जाने के बाद ही हिंगलाज का हडा आदि स्थान क्रमशः पार करके ही आदिनाथ भगवान को भेटना हैं । आदिनाथ भगवान ऐसे सस्ते नहीं । साडे तीन हजार सीढियाँ चढने के बिना आदिनाथ भगवान नहीं मिलते । कष्टपूर्वक जो भगवान मिलते हो उनके दर्शनमें भी कैसे भाव आते हैं ? * इस जिनवाणी के श्रवण से जीवनमें जांच करें : कषायों की कटुता कितनी दूर हुई ? मैत्री की मधुरता कितनी बढी ? यह जांच आप ही कर सकेंगे, दूसरा कोई कर नहीं सकता । (३१८ womwwwmommonommmmon कहे कलापूर्णसूरि - ४)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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