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________________ पदवी प्रसंग, मद्रास, वि.सं. २०५२, माघ शु. १३ २६-११-२०००, रविवार मृगशीर्ष शुक्ला - १ * दैनिक क्रियाओंमें जो सूत्र बोलते हैं, उसके कुछ रहस्य ललित-विस्तरा जैसे ग्रंथों से ख्यालमें आते हैं । विधिपूर्वक यदि ये चैत्यवंदन आदि क्रियाएं की जाये तो श्रद्धा, मेधा आदि महासमाधि के बीज बन जाते हैं । अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण इत्यादिमें आता 'करण' शब्द समाधि का ही वाचक हैं । शब्द से जो कह नहीं सकते उसे अपूर्वकरण कहते हैं । उस समय साधक की दशा गूंगा आदमी मिठाई खाता हैं, किंतु वर्णन नहीं कर सकता उसके जैसी होती हैं । तब आरोपित सुखकी भ्रमणा नष्ट हो जाती हैं । __ अनारोप-सुखं मोह-त्यागादनुभवान्नपि । आरोपप्रियलोकेषु, वक्तुमाश्चर्यवान् भवेत् ॥ - ज्ञानसार हम सब आरोप सुख से अभ्यस्त हैं । शरीर आत्मा न होने पर भी उसमें आत्मा का आरोप करते हैं । सुख न होने पर भी सुख का 'आरोप' करते हैं । सुख का आरोप इसका मतलब ही सुख की भ्रमणा ! भगवान की कृपा के बिना यह भ्रम नहीं मिटता । कहे कलापूर्णसूरि - ४0 saaoooooooooooo 600 ३१७)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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