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प्रभु को याद रखना ही सफलता हैं ।
प्रभु को भूल जाना ही निष्फलता हैं । इतना याद रहे तो 'धारणा' आते समय नहीं लगता ।
लोगस्स चलता हो तब लोगस्समें चित्त लगना ही चाहिए । जो पंक्ति चलती हो वहीं चित्त लगा होना चाहिए । आगे-आगे के सूत्रों का भी विचार करो तो भी 'धारणा' नहीं कही जाती । विक्षिप्त चित्त कभी 'धारणा' का अभ्यास कर नहीं सकता । विक्षिप्त चित्तवाला मोती को भी बराबर पिरो नहीं सकता तो प्रभु के साथ एकाकार कैसे बन सकता हैं ?
धारणा के तीन प्रकार हैं : अविच्युति, वासना और स्मृति । यह धारणा यहीं लेनी हैं ।
कितनेक को श्रद्धा, मेधा, धृति, धारणा, अनुप्रेक्षा इत्यादि के संस्कार तुरंत ही पड़ जाते हैं । कितनेक को समय लगता हैं । कितनेक को जीवनभर ऐसे संस्कार नहीं आते । यहाँ पूर्वजन्म का कारण हैं । जिन्होंने पूर्वजन्ममें साधना की हो, उन्हें साधना तुरंत ही लागु पड़ती हैं । जिन्होंने कभी साधना शुरु की ही नहीं उसे यह जल्दी लागु नहीं पड़ती । पूर्वजन्म के संस्कारों के कारण ही मनुष्य-मनुष्यमें इतना अंतर देखने मिलता हैं ।
* अनुप्रेक्षा को यहाँ रत्न को शुद्ध करनेवाली अग्नि की उपमा दी गई हैं । तत्त्वार्थ की अनुचिंता करनी वह अनुप्रेक्षा हैं ।
अनुप्रेक्षा यानि ध्यान । अनुप्रेक्षामें उपयोग होता ही हैं । उपयोग के बिना अनुप्रेक्षा हो नहीं सकती । उपयोग हो वहाँ ध्यान आ ही गया । वाचना, पृच्छना, परावर्तना उपयोग के बिना भी हो सकते हैं । लेकिन अनुप्रेक्षा उपयोग के बिना कभी हो ही नहीं सकती ।
यह अनुप्रेक्षा ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से मिलती हैं । इससे संवेग बढता हैं । उत्तरोत्तर वह विशेष सम्यक् श्रद्धान रूप से होती हैं । अंतमें वह केवलज्ञान की भेट धरती हैं ।
अग्नि रत्नमें से अशुद्धि दूर करती हैं उसी तरह यह अनुप्रेक्षा की अग्नि कर्म-मल को जलाकर केवलज्ञान देती हैं ।
* आज्ञापालन के बिना संयमजीवन शक्य नहीं हैं । गुरु आज्ञापालनसे ही संयमजीवनमें विकास होगा ।
(कहे कलापूर्णसूरि - ४000000000000000000000 ३१५)