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________________ धृति का अर्थ मनकी एकाग्रता ! स्थिरता ! अनुष्ठान के प्रति विशिष्ट प्रीति ! ऐसी धृति आते ही चित्त एकदम शांत बनता हैं । आकुलव्याकुल मनमें शुद्ध अनुष्ठान का अवतरण हो नहीं सकता । धृतियुक्त मनमें उत्सुकता नहीं रहती । ऐसा चित्त हो वहाँ अवश्य कल्याण होता ही हैं, धीरता-गंभीरता आती ही हैं । चिंतामणि हो वहाँ से गरीबी जाती ही हैं। चिंतामणि के पास आने के बाद भी इसके गुणों की जानकारी होनी चाहिए । नहीं तो वह चिंतामणि गरीबी दूर कर नहीं सकता । यहाँ भी धृति आदि के फायदे की जानकारी होनी चाहिए । चिंतामणि रत्न जैसा धर्म मिलते ही साधक का हृदय नाच उठता हैं, वह पुकारने लगता हैं : अब संसार कैसा ? मुझे अब धर्म-चिंतामणि मिल गया हैं । अब संसार का भय कैसा ? * लोगस्स का दूसरा नाम 'समाधि सूत्र' हैं। 'उद्योतकर' भी उसका एक नाम हैं । लोगस्स हमें नाममें प्रभु देखने की कला सिखाता हैं। 'उसभ' (ऋषभ) यह शब्द आते ही आदिनाथ भगवान का संपूर्ण जीवन हमारे समक्ष आ जाता हैं या नहीं ? न आता हो तो प्रयत्न करें । इस कला को सीखने के लिए ही लोगस्स सूत्र हैं । अरिहंत चेइआणं हमें चैत्य (मूर्ति) में भगवान देखने की कला सीखाता हैं। __ मंत्रमूर्ति समादाय, देवदेवः स्वयं जिनः । सर्वज्ञः सर्वगः शान्तः, सोयं साक्षाद् व्यवस्थितः । यह श्लोक याद हैं न ? धारणा : धारणा की मोती की माला के साथ तुलना की गई हैं । अधिकृत वस्तु को नहीं भूलना उसका नाम धारणा । चित्त शून्य हो तो धारणा हो नहीं सकती, अन्य स्थानमें चित्त हो तो धारणा हो नहीं सकती । अधिकृत (प्रस्तुत) वस्तु हम बहुत बार भूल जाते हैं । एक काउस्सग्ग की बात नहीं हैं, किसी भी बाबत को हम भूल जायें तो वहाँ सफलता नहीं मिलती । (३१४ woooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ४)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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