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________________ पू. पद्मविजयजी म.सा. २५-११-२०००, शनिवार मृगशीर्ष कृष्णा - ३० * सद्धाए, मेहाए, धिइए, धारणाए, अणुप्पेहाए, वड्डमाणीए । प्रभु निर्दिष्ट श्रुत धर्म चारित्र धर्म आज भी चालु हैं । आज भी वे विश्वकल्याण कर रहे हैं । चतुर्विध संघ का एकेक सभ्य सर्व जीवों के हितकर अनुष्ठानमें ही प्रवृत्ति करता हैं । इस लिए इनके प्रत्येक अनुष्ठान के साथ विश्व-कल्याण जुड़ा हुआ होता ही हैं । विश्व के सर्व जीवों के प्रति कितना मैत्रीभाव हैं ? वह उनकी प्रवृत्ति द्वारा व्यक्त होता हैं । इस मैत्रीभाव के आद्य स्रोत भगवान हैं । इसलिए ही चतुर्विध संघ का प्रत्येक सभ्य भगवान के प्रति पूर्णरूप से समर्पित होता ही हैं । भगवान के कहे हुए एकेक अनुष्ठान के प्रति वह पूर्णरूप से श्रद्धान्वित होता ही हैं । हरिभद्रसूरिजी ऐसे ही महान थे। इसलिए ही उनकी कृतिओंमें हमें अपूर्वता देखने मिलती हैं, नये-नये पदार्थ जानने मिलते हैं । [३१२0000 0 00000000 कहे कलापूर्णसूरि - ४)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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